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पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१७९

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बुढ़िया इज़रगिल - - - - - - - - - - - - - दुवला पतला श्रादमी था और खाँस रहा था । मैंने उसके सामने जमीन पर बैठकर उसके घुटने पकड़ लिए और उत्तेजनापूर्ण शब्दों में उससे भीतर जाने की आज्ञा माँगने लगी । अचानक मैंने जोर से उसके घुटने खींच लिए और वह कोचढ़ में जा गिरा ? जल्दी से मैंने उसका मुंह नीचे कीचड की ओर पलट कर जोर से दवा दिया जिससे कि वह चिल्ला न सके । परन्तु वह चिल्लाया नहीं । वह केवल मुझे अपनी पीठ पर से फेंक देने के लिए छटपटाता रहा । मैंने अपने दोनों हाथों का पूरा जोर लगा कर उसका मुंह कीचड में और गहरा वुसेड़ दिया जिससे उसकी दम घुट गई । फिर मैं तेजी से उस घेरे की शोर दौड़ी जहाँ पोल कैद ये । “ पार्कडेक " मैंने, एक दीवाल की संधि में से धीरे से पुकारा । उन पोलो के कान वडे तेज थे । उन्होंने मेरी श्रावाज सुनकर गाना बन्द कर दिया । मैंने अपने विल्कुल सामने उसके नेत्रों को ताकते देखा । " क्या तुम वाहर पा सकते हो - " मै धीरे से फुसफुसाई । “ हाँ , फर्श पर रग कर " - उसने कहा । " तो श्रा जायो । " और उनमें से चार रंग कर धेरे के बाहर या गए - तीन अन्य प्रौर चौथा मेरा ग्राऊंडेक । " सन्तरी कहाँ है ? " अार्कडेक ने मुझसे पूछा । " वह वहाँ पड़ा हुया है । " और हम चुपचाप रंगने लगे -बिल्कुल धीरे धीरे, जमीन मे मट कर । मूसलाधार वर्षा हो रही थी और हवा गरज रही थी । हम लोग गाँव छाद कर एक जंगल में घुसे और बहुत दूर तक चुपचाप चलते रहे । हमारी रफ्तार तेज थी । श्राकडेक मेरा हाथ थामे हुए था । उसका हाथ गर्म था और उत्तेजना से काँप रहा था , जुक्ति की उत्तेजना से । श्रोह मुझे उसके साथ चलने में कितना यानन्द यारहा था । वह चुप था । वे अन्तिम क्षण ये , मेरी इस लालची जिन्दगी के अन्तिा मुन्टर तण । अत में हम एक चोर मैदान में पहुचे और रक गा । उन चारी ने मुझे धन्यवाद दिया । श्रोह, बहुत देर तक वे ऐसी बातें करा रहे जो मेरी समझ में नहीं पा रही थी । मैं चुपचाप उनकी बात मन सी या परन्तु मेरी आँखें अपने प्रातमी पर जमी हुई थीं यह सोचते हुए निका पया रहेगा । अचानक उसने मेरा श्रालिगन रिया पार अत्यन्त