१८४ बुढ़िया इज़रगिल “ वे मुझे प्यार करते हैं । मैं उन्हें ऐसी ही मजेदार बातें सुनाती हूँ और वे इन्हे पसन्द करते हैं । वे सब अभी जवान हैं . " "उनके साथ रहता अच्छा लगता है । मै उन्हें देखकर अपने विषय में सोचने लगती हूँ , एक समय मै भी ऐसी ही थी .... परन्तु उस समय के मनुष्यों में अधिक वल और उत्साह था । यही कारण था कि उस समय जीवन श्राज से अधिक प्रसन्न और अच्छा था । " वह खामोश होगई । मैं उसके पास बैठे बैठे दुखी हो उठा । परन्तु वह ऊँघ रही थी । उसका सिर हिलता जाता था और वह अपने आप कुछ वडवड़ा रही थी , शायद प्रार्थना कर रही हो । समुद्र से एक बादल उठा काला विशाल - एक पर्वत के समान जैसे किसी पर्वत श्रेणी की चोटियाँ उठ रही हो । यह मैदान के ऊपर रेंगता हुश्रा बढ़ रहा था । जैसे जैसे यह आगे बढ़ता जाता था । इसमें से छोटे छोटे टुकड़े टूट टूट कर इससे आगे भागे चले जारहे थे - एक के बाद दूसरे तारों को ढकेलते हुए । समुद्र का , गर्जन गम्भीर हो उठा था । हमसे कुछ दूर पर उगी हुई अँगूर की बेलों से एक प्रकार की चुम्बनों की फुसफुसाहट की और गहरी सॉस लेने की सी आवाज़ श्रा रही थी । दृर मैदान में एक कुत्ता भाँक उठा । हवा में एक विचित्र प्रकार की गन्ध भर गई जिसने हमारी नसों को व्याकुल वना दिया - और हमारी नाक को गुदगुदा दिया । ग्राफाश में उड़ते हुए उन वाढली की विभिन्न प्रकार की छायायें पृवी पर रेंग रहीं थीं जैसे चिदियों का कोई मुण्ड उडा जा रहा हो कभी दिप जाता हो और कभी फिर दिसाई देने लगता हो । चन्द्रमा एक गोन धुंधले धब्बे मा दिपाई दे रहा था और कभी कभी यह भी बादल कियो टुकडे के पीछे दिप जाता था । और दृर घास के मैदानी में जो पर काले और स्पष्ट हो उठे थे, दोटी छोटी नीली रोशनियाँ दिवाई पढ तीची, कि वह मंदान अपने में हर दिपाने का प्रयत्न कर रहा हो । पर सर के लिए चमक्ती - कभी यहाँ और कभी वहाँ और गायव - नों बहुत से यादमी टस मैदान में फैले हुए दियासलाई
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