श्रावारा प्रेमी २०४ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - चाहिए," उसने कहा, "परन्तु मुझे पेरि पेस्ट्रीयाँ पसन्द नहीं हैं .. यह मुरव्वा उससे अच्छा है । " मिठाई के साथ उसने कुछ केक और अखरोट भी खरीदे और तब हम एक शराब की दुकान पर गये । वहाँ से उसने शराब की दो बोतलें खरीदी जिनमें एक का रङ्ग हल्का लाल और दूसरी का तूतीया जैसा था । काँख में उन वन्डलों को दवाये , सड़क पर चलते हुए उसने उस पादरिन के विषय में यह कहानी गढ़ी । " वह एक मोटी ताजी औरत है , है न ? एक दूकानदार की स्त्री रही होगी -- एक परचूनिये की । मेरा ख्याल है वह अपने पति के प्रति सच्ची नहीं थी । वह एक छोटा सा दुबला पतला आदमी होगा . यह औरतें कितनी चालाक होती हैं ? उदाहरण के लिये स्तेपखा को ही ले लो . " इस समय तक हम लोग एक मकान के दरवाजे पर पहुँच गये थे जिसका रङ्ग भूरा था और जिसमें हरी खिड़कियाँ लगी हुई थीं । वॉस के टुकड़ों से बने हुए उस दरवाजे को शाश्का ने लात मार कर खोला जैसे कि यह उसका अपना ही घर हो , अपनी टोपी जरा तिरछी की थौर अहाते में घुस गया जो भोज पन के पीले , तथा चिनार के पुराने सूसे पत्तों से भरा हुआ था । थहाते के दूसरे सिरे पर , वाग की . दीवाल के सहारे बना हुआ कपड़े धोने का एक घर था जो खिड़कियों की देहली सक वन्द था । इसकी दत पीली सी हरी काई से ठको हुई थी और वृक्षों की शाखाऐ इस छत के ऊपर हिलती रहती थीं और अपनी पत्तियों को अनिच्छापूर्वक गिराती रहती थीं । अपनी उन दो खिड़कियों से वह धांची -घर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो एक मेदक टदासीनता पूर्वक शकित रष्टि से देख रहा हो । लगभग चालीस वर्ष की अवस्था वाली एक लम्बी चौड़ी स्त्री ने दरवाजा खोला । चेचक के दागों से भरा हुथा चेहरा, प्रसन्नता से चमकती हुई शॉ और मोटे लाल होठ जो एक टरफुल्ल मुस्कराहट से खुल गये थे पह उसफा रूप था ।
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