पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/२१

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मालवा "कैसे ? तुम इसका बदला कैसे दोगी ?" "इन्तजार करो और देखो" मालवा पूरी शान्ति से बोली परन्तु उसके होठों पर एक ऐंठन दिखाई दी। "श्रोह, मेरी प्यारी !" चासिली चिल्लाया और एक प्रेमी के हद आलिंगन में उसे आवद्ध कर लिया । "क्या तुम जानवी हो," यह धागे, वोला, "जब से मैंने तुम्हें मारा है तुम मुझे और भी प्यारी लगने लगी हो ! मैं सच कह रहा हूँ ! मैं अनुभव कर रहा हूँ हम और तुम दोनों एक ही रक्क भोर माँस के बने हुए हैं।" ___ समुद्री चिड़ियाँ उनके ऊपर उड़ रही थीं । समुद्री हवा उन्हें दुलरा रही थी और लहरों के भाग को लगभग उनके पैरों के पास सक ले आती थी। समुद्र की न रुकने वाली हँसी बराबर गूंज रही थी। हाँ ऐसी बातें होनी चाहिए," वासिली घोला और मुक्ति की गहरी साँस लेकर उसने मालवा को प्यार करते हुए अपने सीने से चिपका लिया । "इस संसार में हर चीज कितनी विचित्र है-जो पाप है यही सुन्दर है ! तुम कुछ नहीं समझती ..परन्तु कभी कभी मैं जिन्दगी के बारे में सोचता हूँ तो मुझे भय लगता है। खास तौर से रात को...जव मैं सो नहीं सकता ... तुम देखते हो और अपने सामने समुद्र को पाते हो, अपने सिर के ऊपर श्राकाश को और चारों ओर छाए हुए अन्धकार को देखते हो--ऐसे गहरे अन्धकार को जिसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं ..और तुम बिल्कुल अकेले हो! तुम अपने को छोटा, इतना छोटा अनुभव करते हो । धरती तुम्हारे पैरों के तले कॉपने लगती है और वहाँ तुम्हारे सिवा और कोई नहीं होता। सर मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ होती .. कमसे कम वहाँ हम दो तो होते " मालवा उसके घुटनों पर चुपचाप पड़ी रही। उसकी आँखें बन्द थीं। वासिली का रूखा परन्तु दयालु चेहरा, धूप और हवा से सांवला पड़ा हुश्रा, उसके ऊपर झुका हुआ था। उसकी लम्बी चमकीली दादी मालवा की गरदन को सहला रही थी । वह हिली नहीं । केवल उसकी छाती