नमक का दलदल "नमक के दलदल पर चले जानो , दोस्त । वहाँ हमेशा काम मिल सकता है । जब चाहो तव । क्योंकि वह काम बहुत मुश्किल है । कोई भी वहीं ज्यादा दिनों तक नहीं ठहरता । सव भाग जाते हैं । उसे बर्दास्त नहीं कर पाते । तुम जाकर दो एक दिन काम करके देख लो । वहाँ एक ठेले की मजदूरी लगभग सात कोपेक मिलती है । उससे एक दिन का गुजारा मजे में चल जाता है । " उस मछुवे ने , जिसने मुझे यह सलाह दी थी , थूका, समुद्र के नाल दितिज की श्रोर देखा और अपने आप एक नीरस गाना गुनगुना ठठा । मैं उसके पास मछली पकड़ने वालों की एक झोपडी की छाया में बैठा हुआ था । वह बैठा हुआ अपना पाजामा सी रहा था और जम्हाई लेता बड़ो उदासीनता के साय इधर उधर देखता हुया वसाता जा रहा था कि वहाँ काम काफी नहीं था और यह कि काम पाने के लिए वहाँ बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी । "जब तुम वहाँ बहुत ज्यादा थक जानो तो यहाँ चले आना और सुस्ता लेना । हमें वहाँ की बातें बताना । यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है । यही कोई पाँच मील के करीब है । यह जिन्दगी भी बड़ी अजीव है । " मैंने उससे विदा ली , उसकी सलाह के लिए धन्यवाद दिया और किनारे किनारे नमक के दलदल की तरफ चल पड़ा । अगस्त का महीना था । सुबह भी गर्मी पड़ रही थी । श्रासमान निर्मन या , समुद्र शान्त था । इसके लहरें एक दूसरी के पीछे, हल्की सी शोकपूर्ण ध्वनि के साथ रेतीले किनारे पर टकर । रहीं यी । अपने से काफी आगे , नीली धुन्ध में , तट की पीली चालू पर
पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/२१७
दिखावट