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मालवा अपना खुद मालिक हूँ, गाँव में हरेक के बराबर बैसियत वाला। लेकिन यहाँ मैं क्या है ?...""एक नौकर !......." "लेकिन तुम्हें यहाँ खाने को काफी मिलता है और फिर काम भी आसान है। "देखो, मुझे यह नहीं कहना चाहिए ! कभी कमी सुम्हें इतनी सख्त मेहनत करनी पड़ती है कि हड्डियाँ दर्द करने लगती हैं। खास बात तो यह है कि तुम्हें मालिक के लिए काम करना पड़ता है। घर पर तुम अपने लिए काम करते हो" "लेकिन पैसा तो ज्यादा मिलता है," याकोव ने विरोध किया। अपने दिल में वासिनी बेटे से सहमत होगया। घर पर, गाँव में, जिन्दगी और काम यहाँ से मुश्किल है परन्तु किसी वजह से वह याकोव को यह बात नहीं बताना चाहता था। इसलिए उसने कठोर होकर जवाब दिया: __"क्या तुम जानते हो कि मुझे यहाँ किसने पैसे मिलते हैं ? अब देखो, घर पर, गाँव में मेरे बच्चे ...." "यह एक गढ़े की तरह है-अन्धेरा और संकरा," मालवा मुस्कराती हुई बीच में वोली, "खास तौर से हम औरतों के लिए....."आँसुओं के अलावा और कुछ नहीं।" ___"औरस के लिए तो हर जगह एक सी हो है".."रोशनी भी वही है....वही सूरज सब जगह चमकवा है ।" मालवा की तरह धूरते हुए वासिनी ने जवाब दिया। "यहाँ तुम गलत बात कह रहे हो" मालवा खुश होकर बोली"गाँव में मुझे शादी करनी ही पड़ेगी चाहे मैं चाहूँ या न चाहूँ और एक शादी-शुदा औरत वहाँ जिन्दगी भर गुलाम रहती है । बावनी करो, चर्खा काठो, जानवरों को देखो और बच्चे पैदा करो । उसके पास अपने लिए करने के लिए क्या रह जाता है ? सिर्फ अपने मालिक के लात घृ से।" "पर सब केवल मार ही नहीं है" वासिनी ने टोका । "परन्तु यहाँ मैं किसी की गुलाम नहीं ।" टोकती हुई मालवा बोली