पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/२३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३६ नमक का दजदख - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - सौगात भी दी है । सुम्हें इसके लिए हमें धन्यवाद देना चाहिए । " उसने थूका और अपनी तम्बाखू की थैली को घुमाने लगा, मानो कह रहा हो कि : देखा मैं कितना चालाक हूँ । इस सब से दुखी होकर मैं जल्दी से अपनी विदा मांग कर अपने रास्ते पर चल पड़ा । एक बार फिर मैं समुद्र के किनारे किनारे चल दिया । इस बार उस मछली मारने वाली झोपड़ी की तरफ जहाँ मैंने रात बिताई थी । आस मान साफ और गर्म था , समुद्र निर्जन और भव्य था । वट पर छोटी छोटी हरी लहरें शोर मचाती हुई टकरा रही थी । किसी अज्ञात कारणवश मै बुरी तरह दुखी और लज्जित हो रहा था । धीरे धीरे गरम वालू पर पर घसीटता हुना आगे चढ़ा । धूप की रोशनी में समुद्र तेजी से चमक रहा था । लहरों से उदास और अस्पष्ट ध्वनियाँ उठ रही थीं । जब मैं उस झोपड़ी पर पहुचा तो मेरा परिचित मछुवा मुझ से मिलने उठ खड़ा हुश्रा । " क्यों , वहाँ का नमक पसन्द नहीं पाया , " उसने उस व्यक्ति के सन्तोष के साथ कहा जिसकी भविष्यवाणी खरी उतरी हो । ___ मैंने बिना एक भी शब्द कहे उसकी तरफ देखा । " नमक कुछ ज्यादा था ," उसने जोर देते हुए कहा । " भूख लगी है ? चलो, थोड़ा सा हलुभा खा लो । न मालूम वे इतना ज्यादा क्यों बना लेते ह - याधा बच रहा है । जल्दी जल्दी चम्मच चनाओ । बहुत बढ़िया हलुवा है । इसमें कई तरह की मछलियाँ पड़ी हैं । " दो मिनट बाद में बुरी तरह यका हुश्रा, मैला कृचला और भूखा, कई प्रकार की मछलियों वाला स्वादहीन हलुवा खाता हुया मोपडी के बाहर । दाया में बैठा हुश्रा या ।