दो मन्हें बच्चों की कहानी २५६ . .. - -- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - . . . वन पर झपटता और उन दोनों के नन्हे शरीरों को बरफ की पारदर्शक चादर से ढक देता जिसे वे भोजन और गर्माहट पाने की जल्दी में तेजी से झटक कर आगे बढ़ जाते । " सुनो, " इस तरह तेजी से चलने के कारण हांपते हुए कार ने कहा. " मैं इसकी परवाह नहीं करती कि तुम क्या सोचते हो लेकिन अगर चाची को मालूम होगया तो " " मैं तो कह दूंगी कि यह सब तुम्हारी करतूत थी । मुझे परवाह नहीं । तुम तो हमेशा भाग जाते हो और मुझे सब भुगतना पड़मा है . वह हमेशा मुझी को पकड़ लेती है और फिर मुझे मसे भी ज्यादा मार खानी पड़ती है । सुन ली , मैं तो यही कह दूंगी । " “ जा और कह दे, " मिश्का ने सिर हिलाते हुए कहा, " अगर वह मुझे मारेगी तो मैं सब भुगत लूंगा । जा , अगर चाहती है सो जाकर कह दे " । वह अपने को बहुत बहादुर अनुभव कर रहा था और सिर ऊचा किए सीटी बजाता हुआ चलने लगा । उसका चेहरा पतला और आँखें मकारी से भरी हुई थी जिनमें अक्सर ऐसा भाव झलक उठता था जो , उससे बड़ी उमर के व्यक्तियों में पाया जाता है । उसकी नाक लम्बी और जरा मो मुढ़ी । हुई थी । यह रहा होटल । दो हैं । किसमें चला जाय ? " " छोटे वाले में । मगर पहले मोदी के यहाँ चली । श्राश्रो " जब उन्होंने जितना चाहिए उतना खाना खरीद लिया तो छोटे होटल में घुस गए । होटल में धुश्रा, भाप और गहरी सीखी गन्ध भर रही थी । श्रावारा, चौकीदार और सिपाही यहाँ के अन्धकार पूर्ण वातावरण में बैठे हुए थे और अत्यधिक गन्दे वेटर मेजों के चारों तरफ चक्कर काट रहे थे । ऐसा लगता मानों वहा की प्रत्येक वस्तु चीख रही हो , गाना गा रही हो और गानियाँ पक रही हो । मिश्का ने कोने में एक खाली मेज हद ली और फुर्ती से उसकी तरफ यहा, अपना कोट उतारा और तब शरावसाने की तरफ चला चारों तरफ शर्माजी निगाह डालते हुए काका भी अपना कोट उतारने लगी ।
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