पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मालवा "तुम यह सब मुझसे क्यों कहती हो ?" याकोव ने ताज्जुव से पूछा"मैंने तो तुम्हें छुपा तक नहीं, छुपा है कभी ?" ____"तुम साहस नहीं कर सकते ।" मालवा ने तीखा जवाब दिया। उसके इस कहने में इतनी नफरत भरी हुई थी कि याकोब एक पुरुष और एक मानव होने के नाते तिलमिला उठा । उसके मन में एक शैतानी से भरी हुए और गन्दी भावना उत्पन्न हुई और उसकी आखें चमकने लगी । ____"श्रोह, मैं हिम्मत नहीं कर सकता, ऊँह ?" उसके और पास खिसकते हुए वह बोला। "नहीं, तुम नहीं कर सकते !" "अगर मान लो मैं करूं " "कोशिश करो!" "क्या होगा ?" "मैं तुम्हारी गर्दन पर ऐसा झापड | गी कि सुम उछल कर पानी में जा गिरोगे।" "चलो, मारो!" "मुझे छूने की हिम्मत करो।" याकोव ने अपनी जलती हुई अखि उस पर जमा दी और अचानक अपनी मजबूत बाहें उसकी छाती और पीठ को दवाते हुए उसके चारों ओर कस ली। मालवा के स्वस्थ और गर्म शरीर के स्पर्श ने उसमें आग पैदा कर दी और उसे अपने गले में ऐसी घुटन सी महसूस हुई जैसे कोई उसका गला घोंट रहा हो। "यह लो....."चलो.....'मारो मुझे .. तुमने कहा था तुम ५ मारोगी......।" उसने हांफते हुए कहा। __"छोड़ दो मुझे, याकोय !" उसके कांपते हायों से अपने को छुड़ाने की कोशिश करते हुए शान्त होकर मालवा ने कहा। "लेकिन तुमने तो कहा था कि तुम मेरी गर्दन में झापड़ दोगी, नहीं कहा था "