पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/४०

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मालवा नाव का मस्तूल इधर उधर हिल रहा था । उसका पिछला हिस्सा ऊपर उठता और फिर नीचा हो जाता था । लहरों के टकराने से ऐसी ध्वनि उठ रही थी जैसे नाव परेशान होकर किनारे से माग चौड़े समुद्र में सटक जाना चाहती हो और वह रस्से पर नाराज हो रही थी जो उसे कस कर पकड़े हुए था । " शच्छा, तुम जाते क्यों नहीं ? " मालवा ने याकोव से पूछा । " कहाँ ? " उसने जवाब में पूछा ! " तुमने कहा था कि तुम शहर जाना चाहते थे ! " " मैं नहीं जाऊँगा ! " " तो अपने बाप के पास जाओ । " " तुम्हारा क्या इरादा है ? " "मेरा प्या इरादा है ? " " तुम भी चत्तोगी ? " " तो मैं भी नहीं जाऊँगा । " " क्या तुम दिन भर मेरे पीछे लगे डोलना चाहते हो " मालवा ने उदासीनता से पूछा । हो । मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है ? " याकोय तिरस्कारपूर्वक घोला और गुस्से से पैर पटकताहुआ चला गया । परन्तु उसने यह गलत कहा था कि उसे मालना की जरूरत नदी थी । उसके विना उसे सब चोजे उदाम लगने जगी । उसके हृदय में एक विचित्र भावना टठ सदी हुई थी जब से उसने मालया से बात की थी अपने बाप के खिलाफ एक सस्पE से थमन्तोप घोर विरोध को नापना । सने इसे तो उस दिन महसूस नहीं किया था और प्रान नुयह भी मालवा से मिलने से पहले उसके मन में ऐसी कोई मारना नहीं थी । ... परन्तु शर उसे यह लगा कि उसका पाप रास्ते में एक रोदा हालांकि यह दूर रमा की उम मुरिका में दिखाई पड़ने वाली रेख की पटी पर था । तय उसे यह लगा कि मानवा उसके पाप से डरती है । अगर पानी वरती होती तो उसके और मेरे मन्यन्य पद दूसरे को हो । •