पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/५७

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५८ मालवा - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - को उस निर्जनता में लुप्त होते देखकर , मालवा उदास हो उठी , जो बहरों की निरन्तर होने वाली भनभनाहट में धीरे धीरे चमक रहा था । अचानक उसने अपने पीछे सर्योमका की आवाज सुनीः " तुम यहाँ किसलिए बैठी हो ? " "इससे तुम्हें क्या मतलब ? " उसने विना मुड़े कठोर स्वर में उत्तर दिया । " मुझे इसमें वैसे ही रुचि है । " उसने आगे कुछ नहीं कहा परन्तु उसे ऊपर से लेकर नीचे तक देखा, एक सिगरेट बनाई , उसे जलाया और उसी नाव पर दूर बैठ गया । कुछ देर बाद उसने मित्रता के स्वर में कहा " तुम अजीव औरत हो | तुम एक क्षण तक तो सबसे छिपी रहती हो और दूसरे ही क्षण हरेक की गरदन से लटक जाती हो । " " मैं तुम्हारी गर्दन से तो नहीं लटकती, क्यों ? " उसने चिड़चिड़ी होकर कहा । " नहीं , मेरी से तो नहीं , परन्तु याश्का की से ? " " और तुम जलते हो ? " “ उह .. . सीधी बातें करो, विल्कुल हृदय से, " मालवा के कन्धों को थपथपाते हुए सर्योमका ने सलाह दो । वह उसकी बगल में बैठी थी इस लिए वह उसके चेहरे के भावों को न देख सका जव वह बिगड़कर बोली . " अच्छी बात है । " " मुझे बताश्री , तुमने वासिली को छोड़ दिया है ? " " मैं नहीं जानतो , " मालवा ने जवाब दिया कुछ देर बाद उसने आगे पूछा ,. " तुम क्यों पूछते हो ? " " वैसे ही । " "मैं उससे नाराज हूँ । " " क्यों ? " " उसने मुझे मारा था । "