पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४ मालवा - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - हृदय में अपने बाप के खिलाफ क्रोध की भयङ्कर ज्वाला प्रज्वलित करदी थी और इससे भी अधिक मालवा के व्यवहार ने तो उसे क्रोध से अन्धा बना दिया था । मालवा के इस व्यवहार ने , कि कभी तो वह उसे घृणापूर्वक बुरी तरह देखती और दूसरे ही क्षण प्यार करने लगती, याकोव के हृदय में यह इच्छा उत्पन्न करदी थी कि इस पीड़ा के असह्य हो उठने के पहले ही वह उसे प्राप्त करले । और इसलिए, अपने पाप से मिलते समय उसने उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझा - एक ऐसा रोढ़ा कि जिस पर न तो तुम विजय प्राप्त कर सकते हो और न जिसे बचाकर भागे ही बढ़ सकते हो । वह उसके सामने बैठकर उसकी तरफ दृढ़तापूर्वक गम्भीर होकर घूरने लगा मानो कह रहा हो । "मुझे छूने की हिम्मत तो करो ! " उन्होने अब तक दो दो प्याले शराब चढ़ा ली थी परन्तु अभी तक एक दूसरे से एक शब्द भी नहीं कहा था । केवल मछली पकड़ने वाले । स्थान के विषय में एक दो बहुत ही मालूमी बातें हुई थीं । समुद्र के बीच में । अकेले एक दूसरे का सामना करते हुए वे अपने हृदय में एक दूसरे के प्रति भयङ्कर क्रोध बढ़ाते बैठे हुए थे । दोनों ही इस बात को जान रहे थे कि शीघ्र ही उनका क्रोध ठवल पड़ेगा और उन्हें मुलसा देगा । ___ झोंपड़ी को ढकने वाली लम्बी चौड़ी चटाई हया में फड़फड़ा रही यो । सरकडे एक दूसरे से खदखड़ा रहे थे । मस्तूल के सिरे पर बंधा हुश्रा कपड़ा फरफराहट का शोर मचा रहा था । परन्तु ये सारी श्रावाजें फोकी पढ़कर ऐसी लग रही थीं मानो कोई बहुत दूर फुसफुसाती हुई श्रावाज में दीनतापूर्वक असम्बद्ध रूप से किसी चीज की भीख मांग रहा हो । " क्या सोमका अब भी खूब शराब पीता है " वासिली ने अप्रसन्न स्वर में पूछा । " हाँ , वह हर रात शराब पीता है, " याकोव ने और वोदका ढालते हुए कहा ।