तुलसी की भावुकता दिग्गयंद लरखरत, परत दसकंठ मुक्ख भर । सुर बिमान हिमभानु भानु संघटित परस्पर । चौंके बिरंचि संकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यो । ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनि जबहि राम सिव-धनु दल्यो। धनुर्भग के इस वर्णन में प्रश्न यह उठता है कि इसमें प्रदर्शित 'उत्साह' का आलंबन क्या है । प्रचलित साहित्य-ग्रंथों में देखिए तो युद्धवीर का आलंबन विजेतव्य ही मिलेगा। यह विजेतव्य शत्रु या प्रतिपक्षी ही हुआ करता है। अत: यहाँ विजेतव्य धनुष ही हो सकता है। पर पृथ्वी पर पड़ा हुआ जड़ धनुष मनुष्य के हृदय में उठाने तोड़ने का उत्साह किस तरह जाग्रत करेगा, यह समझते नहीं बनता है। वह तो पड़ा पड़ा ललकार नहीं रहा है। यदि किसी मनुष्य इतना साहस और बल है कि वह बड़ी बड़ी चट्टानों को उठा सकता है, तो पहाड़ पर जाकर उसकी क्या दशा होगी ? अत: हमारी समझ में उत्साह का पालंबन कोई विकट या दुष्कर्म 'कर्म' ही होता है। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम की व्याकुलता देख कार्य- तत्परता की मूर्ति हनुमान कहते हैं- जी है। अब अनुसासन पावौं । तो चंद्रमहि निचोरि चैल ज्यों आनि सुधा सिर नावौं । कै पाताल दलों ब्यालावलि अमृतकुंड महि लावै । भेदि भुवन करि भानु बाहिरो तुरत राहु दे तावै ॥ बिबुध-बैद बरबस अानों धरि तो प्रभु अनुज कहावै ॥ पटकों मीच नीच मूषक ज्यों सबहि को हनुमान् के इस 'वीरोत्साह' का आलंबन क्या है ? क्या चंद्रमा, अश्विनी-कुमार इत्यादि ? खैर, इसका विस्तृत विवेचन अन्यत्र किया जायगा; यहाँ इतना ही निवेदन करके रसज्ञों से क्षमा चाहते हैं पायु बहावा , 5
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