पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

, गोस्वामी तुलसीदास अब अद्भुत रस का एक उदाहरण देकर यह प्रसंग समाप्त किया जाता है। हनुमान जी पहाड़ हाथ में लिए आकाश-मार्ग से अपूर्व वेग के साथ उड़े जा रहे हैं-- लीन्हो उखारि पहार बिसाल चल्यो तेहि काल बिलंब न लायो। मारुत-नंदन मारुत को, मन को. खगराज को बेग लजाये॥ तीखो तुरा तुलमी कहतेो पैहिये उपमा को सनाउ न भायो । माना प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लली कपि यो धुकि धायो । इस पद्य के भीतर "मारुत को, मन को,खगराज को इस वाक्यांश में कुछ 'दुष्क्रमत्व' प्रतीत होता है। मन को सब के पीछे होना चाहिए; मन का वेग जब कह चुके, तब खगराज का वेग उसके सामने कुछ नहीं है। पर समग्र वर्णन से जो चित्र सामने खड़ा होता है, उसके अद्भुत होने में कोई संदेह नहीं । गगनमंडल के बीच पहाड़ की एक लीक सी बँध जाना कोई साधारण व्यापार नहीं है। इस अद्भुतता की योजना भी एक स्वभावसिद्ध व्यापार के आधार पर हुई है और प्रकृति का निरीक्षण सूचित करती है। यह सूचित करती है कि अत्यंत वेग से गमन करती हुई वस्तु की एक लकीर सी बन जाया करती है, इस बात पर कवि की दृष्टि गई है। जिसकी दृष्टि ऐसी ऐसी बातों पर न जाती हो, वह कवि कैसा ? प्रकृति के नाना रूपों को देखने के लिये कवि की आँखें खुली रहनी चाहिए; उसका मृदु संगीत सुनने के लिये उसके कान खुले रहने चाहिएँ; और सबका प्रभाव ग्रहण करने के लिये उसका हृदय खुला रहना चाहिए। अद्भुतरस के इस आलंबन द्वारा गोस्वामीजी की बहू स्वाभाविक विश्व-व्यापार-ग्राहिणो सहृदयता लक्षित होती है, जो हिंदी के और किसी कवि में नहीं। इस स्वभाव-सिद्ध अद्भुत व्यापार के सामने “कमल पर कदली, कदली पर कुंड, शंख पर चंद्रमा" आदि कवि-प्रौढोक्ति-सिद्ध रूपकातिशयोक्ति के कागजी दृश्य ।