राम पर जी २४२ गोस्वामी तुलसीदास मुख से सुनते ही वे सूख गए, करुणा से विह्वल हो गए। कड़ा करके वे सीता को पहुँचा आए। आज्ञाकारिता के लिये वे आदर्श हुए। पर यह नियम भी ऐसे अवसरों पर उन्होंने शिथिल कर दिया जब आज्ञा के पालन में उन्होंने अधिक हानि देखी और उल्लंघन का परिणाम केवल अपने ही ऊपर देखा। इन सब बातों के विचार से उनका चरित्र सामान्य के भीतर ही रखा है गृह-नीति की दृष्टि से विभीषण शत्र से मिलकर अपने भाई और कुल का नाश करानेवाले दिखाई पड़ते हैं, पर और विस्तीर्ण क्षेत्र के भीतर लेकर देखने से उनके इस स्वरूप की कलुषता प्राय: नहीं के बराबर हो जाती है। गोस्वामीजी ने इसी विस्तृत दृष्टि से उनके चरित्र का चित्रण किया है। विभीषण राम-भक्त थे, अर्थात् सात्विक गुणों पर श्रद्धा रखनेवाले थे। वे राम के लोक-विश्रुत शील, शक्ति और सौंदर्य पर मुग्ध थे। भाई के राज्य के लोभ के कारण वे राम से नहीं मिले थे। इस बात का निश्चय उनके बार बार तिरस्कृत होने पर भी रावण को समझाते जाने से हो जाता है। यदि उन्हें राज्य का लोभ होता तो वे एक ओर तो रावण को युद्ध के लिये उत्तेजित करते, दूसरी ओर भीतर से शत्रु की सहायता पर वे रावण की लात खाकर खुल्लमखुल्ला राम की शरण यह कहते हुए गए- राम सत्य-संकल्प प्रभु सभा काल-बस तोरि । मैं रघुबीर-सरन अब, जाउँ, देहु जनि खोरि ॥ लोभ-वश न सही, शायद विभीषण भाई के व्यवहार से रूठ- कर क्रोध-वश राम से जा मिले हो । इस संदेह का निवारण रावण कं लात मारने पर विभीषण का कुछ भी क्रोध न करना दिखाकर गोस्वामीजी ने किया है। लात मारनं पर विभीषण इतना ही कहते हैं- करते।
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