पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१४४

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शील-निरूपण और चरित्र-चित्रण नुम पितु-सरिस भले हि माहि मारा । राम भजे हित, नाथ, तुम्हारा * ॥ इस स्थल पर गोस्वामीजी का चरित्र-निर्वाह-कौशल झलकता है। यदि यहाँ थोड़ी सी भी असावधानी हो जाती. विभीषण क्रोध करते दिखा दिए जाते, तो जिस रूप में विभीषण का चरित्र वे दिखलाया चाहते थे, वह बाधित हो जाता। अधिकतर यही समझा जाता कि क्रोध के आवेश में विभीषण ने रावण का साथ छोड़ा : कवि ने विभीषण को साधु प्रकृति का बनाया है। हरी हुई सीता को लौटाने के बदले रावण का राम से लड़ने के लिये तैयार होना असाधुता की चरम सीमा थी जिसे विभीषण की साधुता न सह सकी, गोस्वामीजी का पक्ष यह है। विभीषण की साधुता औसत दरजे की थी। वह इतनी बढ़ी नहीं थी कि राम द्वारा दिए हुए भाई के राज्य की ओर से वे उदासीनता प्रकट करते । सुग्रीव का चरित्र तो और भी औसत दरजे का है। न उनकी भलाई ही किसी भारी हद तक पहुँची हुई दिखाई देती है, न बुराई ही। राम के साथ उन्होंने मैत्री की और राम का कुछ कार्य- साधन करने के पहले ही बड़े भाई का राज्य पाया। पर जैसा कि साधारणत: मनुष्य का स्वभाव (बंदर का स्वभाव कहने से और कुछ कहते ही नहीं बनेगा ) होता है, वे सुख-विलास में फंसकर राम का कार्य भूल गए। जब हनुमान ने चेताया, तब वे घबराए और अपने कर्तव्य में दत्तचित्त हुए। अब तक जिस चित्रण का वर्णन हुआ है, वह एक व्यक्ति का चित्रण है। इसी प्रकार किसी समुदाय-विशेष की प्रकृति का भी चित्रण होता है; जैसे स्त्रियों की प्रकृति का, बालकों की प्रकृति का । स्त्रियों की प्रकृति की जैसी तद्रूप छाया हम 'मानस' के अयोध्या-

  • वाल्मीकि का वर्णन भी इसी प्रकार है।