सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४४ गोस्वामी तुलसीदास कांड में देखते हैं, वैसी छाया के प्रदर्शन का प्रयत्न तक हम और किसी हिदी कवि में नहीं पाते। नीची श्रेणी की स्त्रियों के सामने बहुत कम प्रकार के विषय आते हैं। पर मनुष्य का मन ऐसी वस्तु है कि अपनी प्रवृत्ति के अनुसार लगे रहने के लिये उमे कुछ न कुछ चाहिए। वह खाली नहीं रह सकता । इससे वे अपने राग-द्वेष के अनेक आधार यों ही बिना कारण ढूँढकर खड़ा करती रहती हैं। यदि वे चार आदमियों के बीच रख दी जाय, तो हम बहुत थोडं दिनों में देखेंगे कि कुछ तो उनके अनुराग के पात्र हो गए हैं और कुछ द्वेष के। मूर्ख स्त्रियों की यह विशेषता ध्यान देने योग्य है। अपने लिये राग और द्वेष का पात्र चुन लेने पर वे अपने वाग्वि- लास और भाव-परिपाक के लिये सहयोगी ढूँढ़ती हैं। मंथरा का इसी अवस्था में हम पहले-पहल दर्शन पाते हैं। न जाने उसे क्यों कौशल्या अच्छी नहीं लगती, कैकेयी अच्छी लगती है। राम के अभिषेक की तैयारी देखकर वह कुढ़ जाती है और मुँह लटकाए कैकेयी के पास आ खड़ी होती है। कैकेयी को उसके अनुराग का पता चाहे रहा हो, पर अभी तक द्वेष का पता बिलकुल नहीं है। वह मुँह लटकाने का कारण पूछती है। तब- उतरु देइ नहिं, लेइ उसासू । नारिचरित करि ढारइ आँसू ॥ हसि कह रानि गाल बड़ तोरे । दीन्ह लषन सिख अस मन मोरे ॥ तबहुँ न बोल चरि बडि पापिनि । छांडइ स्वास कारि जनु सापिनि ।' इसकी इस मुद्रा से प्रकट होता है कि उसने अपने द्वेष का आभास इसकं पहले कैकेयी को नहीं दिया था, यदि दिया भो रहा

  • वाल्मीकिजी ने उसे "कैकेयी के मातृकुल की दासी" कहकर कारण

का पूरा सकेत कर दिया है। इस प्रकार की दासी का व्यवहार घर के और लेोगा के साथ कैसा रहता है, यह हिंदू गृहस्थ मात्र जानते हैं। पर गोस्वामीजी ने कारण का संकेत न देकर उसकी प्रवृत्ति को मूर्ख स्त्रियों की सामान्य प्रवृत्ति-नारि चरित-के अंतर्गत रखा है।