पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१६४

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गोस्वामी तुलसीदास इस उपमा में “लज्जा" का उत्कर्ष भी है और क्रिया भी ठीक बिब-प्रतिबिंब रूप में है; अत: यह बहुत ही अच्छी है। उन्हीं राजाओं की ईर्ष्या इस विभावना द्वारा कही गई है- नीच महीपावली दहन बिनु दही है। राम की निःस्पृहता और संतोष का ठीक अंदाज कराने के लिये उपमा और रूपक के सहारे कैसी बातें सामने लाए हैं- असन अजरिन को समुझि तिलक तज्यो, बिपिन गवनु भले भूखे अब सुनाजु भो। धरमधुरीन धीर बीर रघुबीरजू को, कोटि राज सरिस भरतजू का राज भो । दो भावों के द्वंद्व का कैसा सुंदर और स्पष्ट चित्र इस रूपक में मिलता है- मन अगहुँड़ तनु पुलक मिथिल भयो, नलिन-नयन भरे नीर । गड़त गोड़ माना सकुच पंक मह, कढ़त प्रेम-बल धीर ॥ कौशल्या अपने गंभीर वात्सल्य प्रेम का प्रकाश इस पर्यायोक्ति द्वारा जिस प्रकार कर रही हैं, वह अत्यंत उत्कर्ष-सूचक होने पर भी बहुत ही स्वाभाविक है- घव एक बार फिरि आवा। ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहि सिधावै। जे पय प्याइ पोषि कर-पंकज बार बार चुचुकारे । क्यों जीवहि', मेरे राम लाडिले ! ते अब निपट बिसारे ॥ सुनहु पथिक जो राम मिलहि बन कहियो मातु-सँदेसो । तुलसी मोहिं और सबहिन ते इनको बड़ा अँदेसो ।। जिसके वियोग में घोड़े इतने विकल हैं, उसके वियोग में माता की क्या दशा होगी, यह समझने की बात है- जासु बियोग विकल पसु रेसे । कहहु मातु-पितु जीवहिं कैसे ? ॥