अलंकार-विधान 'पर्यायोक्ति' का आश्रय लोग स्वभावतः किस अवस्था में लेते हैं, यह राम का इन शब्दों में आज्ञा माँगना बता रहा है- नाथ ! लषन पुर देखन चहहीं । प्रभु सकोच उर प्रगट न कहहीं॥ लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम को जो मानसिक व्यथा, जो दुःख हो रहा था, उसे लक्ष्मण ने उठकर देखा और वे कहने लगे- हृदय छाड़ मेरे, पीर रघुबीरै । पाइ सनीवन जागि कहत यों प्रेम-पुल के बिसराय सरीरे ॥ इस 'असंगति' से संजीवनी बटो का प्रभाव ( पीड़ा दूर करने का ) भी प्रकट हुआ और राम के दुःख का प्रातिशय्य भी। अलंकार का ऐसा ही प्रयोग सार्थक है। रावण और अंगद के संवाद में दोनों की व्याज-निदा' बहुत ही अच्छी है। रावण के इस वचन से कुछ बेपरवाई झलकती है- धन्य कीस जो निज प्रभु काजा । जहँ तहँ नाचहि परिहरि लाजा ॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई । पनि-हित करें धरम-निपुनाई ॥ बंदरों का आदमी के हाथ में पड़कर नाचना-कूदना एक नित्य- प्रति देखी जानेवाली बात है। अंगद के इन नीचे लिखे वचनों में कैसा गूढ उपहास है- नाक-कान बिनु भगिनि निहारी । क्षमा कीन्ह तुम धरम बिचारी॥ सहज सुभाऊ। मुख निज गुन कहसि न काऊ॥ लाजवंत तुम निज . ( २ ) रूप का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार रूप, गुण और क्रिया तीनों का अनुभव तीव्र करने के लिये अधिकतर सादृश्य-मूलक उपमा आदि अलंकारों का ही प्रयोग होता है। रूप का अनुभव प्रधानत: चार प्रकार का होता है- अनुरंजक, भयावह, आश्चर्यकारक या घृणोत्पादक । इस प्रकार के अनुभव में सहायक होने के लिये आवश्यक यह है कि प्रस्तुत वस्तु
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