हनुमान् और भरत धीरे से इशारा करते हैं ( दरबार है, ठट्ठा नहीं है)। तब लक्ष्मण धीरे से अर्जी पेश करते हैं; और लोग भी जोर दे देते हैं। अंत में महाराजाधिराज हँसकर यह कहते हुए कि "मुझे भी इसकी खबर है", मंजूरी लिख देते हैं।
कुछ रत्न-पारखियों ने सूर और तुलसी में प्रकृति-भेद दिखाने का प्रयास करते हुए सूर को खरा और स्पष्टवादी तथा तुलसी को सिफारशी, खुशामदी या लल्लो-चप्पो करनेवाला कहा है। उन्होंने सूर की स्पष्टवादिता के प्रमाण में ये वाक्य पेश किए हैं-
सनदास प्रभु वै अति खेटे, यह उनहू से अति ही खोटी।
सूरदास सर्बल जौ दीजै करो। कृतहि न मानै।
उन दोनों पदों पर, जिनमें ये वाक्य आए हैं, जो साहित्य की दृष्टि से थोड़ा भी विचार करेगा वह जान लेगा कि कृष्ण न तो वास्तव में खोटे कहे गए हैं, न कलूटे कृतन्त्र। ये वाक्य तो विनोद या परिहास की उक्तियाँ हैं। शृंगाररस में सखियाँ इस प्रकार का परिहास बराबर किया करती हैं।
तुलसी पर लगाया हुआ दूसरा इलजाम, जिससे सूर बरी किए गए हैं, यह है कि वे रह रहकर फजूल याद दिलाया करते हैं कि राम ईश्वर हैं। ठीक है; तुलसी ऐसा जरूर करते हैं। पर कहाँ ? रामचरित-मानस में। पर रामचरित-मानस तुलसीदास का एक मात्र ग्रंथ नहीं है। उसके अतिरिक्त तुलसीदासजी के और भी कई ग्रंथ हैं। क्या सब में यही बात पाई जाती है ? यदि नहीं, तो इसका विवेचन करना चाहिए कि रामचरित-मानस में ही यह बात क्यों है। मेरी समझ में इसके कारण ये हैं-
(१) रामचरित-मानस की कथा के वक्ता तीन हैं—शिव, याज्ञ- वल्क्य और काक भुशुंडि। श्रोता हैं पार्वती, भरद्वाज और गरुड़।
इन तीनों श्रोताओं ने अपना यह मोह प्रकट किया है कि कहीं राम