There are लोक-धर्म भक्त कहलानेवाले एक विशेष समुदाय के भीतर जिस समय यह उन्माद कुछ बढ़ रहा था. उस समय भक्तिमार्ग के भीतर ही एक ऐसी सात्त्विक ज्याति का उदय हुआ जिसके प्रकाश में लोक-धर्म कं छिन्न-भिन्न होते हुए अंग भक्ति-सूत्र के द्वारा ही फिर से जुड़े। चैतन्य महाप्रभु के भाव-प्रवाह के द्वारा वंगदेश में, अष्टछाप के कवियों के संगीत-स्रोत के द्वारा उत्तर भारत में प्रेम की जो धारा बही, उसने पंथवालों परुष वचनावली से सूखते हुए हृदयों को आई तो किया, पर वह आर्य-शास्त्रानुमोदित लोक-धर्म के माधुर्य की ओर आकर्षित न कर सकी। यह काम गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया। हिंदू समाज में फैलाया हुआ विष उनके प्रभाव से चढ़ने न पाया। हिंदू-जनता अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भुलाने, कई सहस्र वर्षों के संचित ज्ञानभंडार से वंचित रहने, अपने प्रात - स्मरणीय आदर्श पुरुषों के आलोक से दूर पड़ने से बच गई। उसमें यह संस्कार न जमने पाया कि श्रद्धा और भक्ति के पात्र केवल सांसा- रिक कर्तव्यों से विमुख, कर्ममार्ग से च्युत कोरे उपदेश देनेवाले ही हैं। उसके सामने यह फिर से अच्छी तरह झलका दिया गया कि संसार के चलते व्यापारों में मग्न, अन्याय के दमन के अर्थ रणक्षेत्रों में अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले, अत्याचार पर क्रोध से तिलमिलानेवाले, प्रभूत शक्ति-संपन्न होकर भी क्षमा करनेवाले, अपने रूप, गुण और शील से लोक का अनुरंजन करनेवाले, मैत्री का निर्वाह करनेवाले, प्रजा का पुत्रवत् पालन करनेवाले, बड़ों की आज्ञा का आदर करनेवाले, संपत्ति में नम्र रहनेवाले, विपत्ति में धैर्य रखनेवाले प्रिय या अच्छे ही लगते हैं, यह बात नहीं है। वे भक्ति और श्रद्धा के प्रकृत आलंबन हैं, धर्म के दृढ़ प्रतीक हैं । सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने श्रीकृष्ण के शृगारिक रूप के प्रत्यक्षीकरण द्वारा 'टेढ़ी सीधी निर्गुण वाणी' की खिन्नता ,