गोस्वामी तुलसीदास और शुष्कता को हटाकर जीवन की प्रफुल्लता का आभास तो दिया, पर भगवान् के लोक-संग्रहकारी रूप का प्रकाश करके धर्म के सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं कराया। कृष्णोपासक भक्तों के सामने राधा- कृष्ण की प्रेमलीला ही रखी गई, भगवान् की लोक-धर्म-स्थापना का मनोहर चित्रण नहीं किया गया। अधर्म और अन्याय से संलग्न वैभव और समृद्धि का जो विच्छेद उन्होंने कौरवों के विनाश द्वारा कगया, लेकि-धर्म से च्युत होते हुए अर्जुन को जिस प्रकार उन्होंने माला, शिशुपाल के प्रसंग में क्षमा और दंड की जो मर्यादा उन्हे ने दिखाई, किसी प्रकार ध्वस्त न होनेवाले प्रबल अत्याचारी के निराकरण की जिस नीति के अवलंबन की व्यवस्था उन्होंने जरा- संध-वध द्वारा की, उसका सौदर्य जनता के हृदय में अंकित नहीं किया गया। इससे असंस्कृत हृदयों में जाकर कृष्ण की शृंगारिक भावना ने विलास-प्रियता का रूप धारण किया और समाज केवल नाच-कूदकर जी बहलाने के योग्य हुआ। जहाँ लोक-धर्म और व्यक्ति-धर्म का विरोध हो, वहाँ कर्म-मार्गी गृह यों के लिये लोक-धर्म का ही अवलंबन श्रेष्ठ है। यदि किसी अत्याचारी का दमन सीधे न्याय-संगत उपायों से नहीं हो सकता तो कुटिल नीति का अवलंबन लोक-धर्म की दृष्टि से उचित है। किसी अत्याचारी द्वारा समाज को जो हानि पहुँच रही है, उसके सामने वह हानि कुछ नहीं है जो किसी एक व्यक्ति के बुरे दृष्टांत से होगी। लक्ष्य यदि व्यापक और श्रेष्ठ है तो साधन का अनिवार्य अनौचित्य उतना खल नहीं सकता । भारतीय जन-समाज में लोक- धर्म का यह आदर्श यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित रहने पाता तो विदे- शियों के आक्रमण को व्यर्थ करने में देश अधिक समर्थ होता। रामचरित के सौंदर्य द्वारा तुलसीदासजी ने जनता को लोक- धर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया, वह निष्फल नहीं हुआ।
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