हरि-गुरु-निदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई॥
सुर श्रुति-निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहि ते प्रानी॥
सबकै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अदतरहीं॥
अब विचारना यह चाहिए कि साहित्य की दृष्टि से ऐसे कोरे उपदेशों का 'मानस' में स्थान क्या होगा। 'मानस' एक 'प्रबंध- काव्य' है। 'प्रबंध-काव्य' में कवि लोग पात्रों की प्रकृति और शील का चित्रण भी किया करते हैं। 'मानस' में उक्त प्रकार के उप-्देशात्मक वचन किसी न किसी पात्र के मुँह से कहलाए गए हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि ऐसे वचन पात्रों के शील-व्यंजक मात्र हैं और काव्य-प्रबंध के अंतर्गत हैं। पर विचार करने पर यह साफ झलक जाता है कि उन उपदेशात्मक वचनों द्वारा कवि का, लक्ष्य वक्ता पात्रों का चरित्र-चित्रण करना नहीं, उपदेश ही देना है। चरित्र-चित्रण मात्र के लिये जो वचन कहलाए जाते हैं उनके यथार्थ-अयथार्थ या संगत-असंगत होने का विचार नहीं किया जाता। पर 'मानस' में आए उपदेश इसी दृष्टि से रखे जान पड़ते हैं कि लोग उन्हें ठीक मानकर उन पर चलें। अत: यही मानना ठीक होगा कि ऐसे स्थलों पर गोस्वामीजी का कवि का रूप नहीं, उपदेशक का ही रूप है। अब हम इन कोरे और नीरस उपदेशों को काव्यक्षेत्र के
- Those concepts which are found mingled and
fused with intuitions are no longer concepts in so far as they are really mingled and fused, for they have lost all independence and autonomy, e.g., the philosophical maxims placed in the mouth of a personage of tragedy or comedy, perform there the function not of concepts but of characteristics of such personage.
——"Æsthetics” by Benedetto Croce.