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पृष्ठ:गो-दान.djvu/१०३

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गोदान
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मिर्जा़ साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा -- मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ।

मिस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।

'मुझ पर आप जितनी लानत चाहें भेजें;मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना ही नुक़सान कर रहे हैं।'

'मैं ऐसी रक़म को हराम समझता हूँ।'

'आप शरीयत के इतने पाबन्द तो नहीं हैं।'

'लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पावन्द होने की ज़रूरत नहीं है।'

'तो इस मुआमले में क्या आप अपना फैसला तब्दील नहीं कर सकते?'

'जी नही।'

'अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कम्पनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज़ नहीं है? आपको कम्पनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पड़ेगा। आप सिर्फ़ अपना नाम दे दीजिएगा।'

'जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कम्पनियों का डाइरेक्टर,कई का मैनेजिंग एजेण्ट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चुमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ़ के कितने सामान जमा किये जा सकते हैं; मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना खुद-ग़रज़ बना देती है,कितना ऐश-पसन्द,कितना मक्कार,कितना वेगैरत।'

वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जा़जी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था।

लकड़हारा हिरन को कंधे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा़ ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तखा पीछे रह गये।

उन्होंने पुकारा -- ज़रा सुनिए, मिर्जा़जी, आप तो भागे जा रहे हैं।

मिर्जा़जी ने बिना रुके हुए जवाब दिया -- वह ग़रीब बोझ लिये इतनी तेजी़ से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते?

लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था।

मिर्जा साहब ने आकर पूछा -- थक गये, क्यों?

लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा -- बहुत भारी है सरकार !

'तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूंँ।'

लकड़हारा हॅसा। मिर्जा़ डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताजे़ थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हॅसा। मिर्जा़जी पर जैसे चाबुक पड़ गया।

'तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?'