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गो-दान
 


झोंके से उड़ते देखकर केवल मुस्करा दिया था,वह सारे आकाश में छाकर उसके मार्ग को इतना अन्धकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लम्पट! वह सरल गँवार जिसे वह अभी बच्चा समझता था;लेकिन उसे भोज की चिन्ता न थी,पंचायत का भय न था,झुनिया घर में कैसे रहेगी इसकी चिन्ता भी उसे न थी। उमे चिन्ता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है,अनाड़ी है,आत्माभिमानी है,कहीं कोई नादानी न कर बैठे।

घबड़ाकर बोला--झुनिया ने कुछ कहा नहीं,गोबर कहाँ गया? उससे कहकर ही गया होगा।

धनिया झुंँझलाकर बोली--तुम्हारी अक्कल तो घास खा गयी है। उसकी चहेती तो यहाँ बैठी है,भागकर जायगा कहाँ? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुंँही झुनिया की चिन्ना है कि इसे क्या करूँ? अपने घर में मैं छन-भर भी न रहने देंगी। जिस दिन गाय लाने गया है,उसी दिन में दोनों मे तक-झक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खलती। मगर जब पेट रह गया तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी,कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ लेके कहाँ जाय,कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गयी कि मुझे यहाँ मे ले चलो, नही मैं परान दे दूंँगी,तो बोला--तू चलकर मेरे घर में रह,कोई कुछ न बोलेगा,अम्माँ को मना लूँगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा.फिर न जाने किधर सरक गया। यह खडी़-खडी़ उसे पुकारती रही। जब रात भीग गयी और वह न लौटा,भागी यहाँ चली आयी। मैंने तो कह दिया,जैसा किया है वैसा फल भोग। चुडै़ल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब मे बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है,अपने घर कौन मुंँह लेकर जाऊँ। भगवान ऐसी सन्तान मे तो बाँझ ही रखे तो अच्छा। सबेरा होते-होते मारे गाँव में कॉव-कॉव मच जायगी। ऐमा जी होता है,माहुर खा लूं। मैं तुमसे कहे देती हूँ, मैं अपने घर में न रवगी। गोबर को रखना हो,अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले,तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे,या मैं ही रहूँगी।

होरी बोला--तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।

'सब कुछ कहके हार गयी। टलती ही नहीं। धरना दिये बैठी है।'

'अच्छा चल,देखूँ कैसे नहीं उठती,घसीटकर बाहर निकाल दूंँगा।'

'दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था;पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बहया होते हैं!'

'वह क्या जानता था,इनके बीच में क्या खिचड़ी पक रही है।'

'जानता क्यों नहीं था। गोबर रात-दिन घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गयी थीं। सोचना चाहिए था न,कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है।'

'चल मैं झुनिया से पूछता हूँ न।'