मुंँह किये,अन्धकार में उस आनन्द को खोज रही थी,जो एक क्षण पहले अपनी मोहिनी छवि दिखाकर विलीन हो गया था। वह आफ़त की मारी व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी,और उसे एक भवन मिल गया था,जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी;पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिये अलादीन के राजमहल की भाँति ग़ायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था।
एकाएक द्वार खुलने और होरी को आते देखकर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिरकर रोती हुई बोली--दादा,अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है,चाहे मारो चाहे काटो;लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत।
होरी ने झुककर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा--डर मत बेटी,डर मत। तेरा घर है,तेरा द्वार है,तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी है,वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते है,किसी बात की चिन्ता मत कर। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी ऑखों न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा,वह हम सब दे लेंगे,तू खातिर-जमा रख।
झुनिया,सान्त्वना पाकर और भी होरी के पैरों से चिमट गयी और बोली--दादा अब तुम्हीं मेरे बाप हो और अम्माँ,तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दो,नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही ग्वा जायंगे।
धनिया अपनी करुणा के आवेग को अब न रोक सकी। बोली--तू चल घर में बैठ,मैं देख लूंँगी काका और भैया को। संसार में उन्ही का राज नहीं है। बहुत करेंगे,अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतारकर।
अभी ज़रा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुंँही न जाने क्या-क्या कह डाला था। झाड़ मारकर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेह,क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने तो होरी के पाँव छोड़कर धनिया के पांँव से लिपट गयी और वही साध्वी जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भरकर देखा भी न था,इस पापिष्ठा को गले लगाये उसके आँसू पोछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को अपने कोमल शब्दों मे शान्त कर रही थी,जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाये बैठी हो।
होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा-- क्यों बेटी,तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया!
झुनिया ने सिसकते हुए कहा--मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर...यह कहते-कहते उसकी आवाज़ आँसुओं में डूब गयी।
होरी अपनी व्याकुलता न छिपा सका।
'जब तूने आज उसे देखा,तो कुछ दुखी था?'
'बातें तो हँस-हँसकर कर रहे थे। मन का हाल भगवान जाने।'
'तेग मन क्या कहता है,है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया?'