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गो-दान
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'मुझे तो शंका होती है,कहीं बाहर चले गये हैं।'

'यही मेरा मन भी कहता है। कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गयी, तो उसे निभानी पड़ती है। इस तरह भागकर उसने हमारी जान आफ़त में डाल दी।'

धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़कर अन्दर ले जाते हुए कहा--कायर कहीं का। जिसकी बाँह पकड़ी,उसका निबाह करना चाहिए कि मुंँह में कालिख लगाकर भाग जाना चाहिए। अब जो आये,तो घर में पैठने न दूंँ।

होरी वहीं पुआल में लेटा। गोबर कहाँ गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मॅडराने लगा।


११

ऐसे असाधारण काण्ड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचना चाहिए था, वह मचा और महीनों तक मचता रहा। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिये गोबर को खोजते फिरते थे। भोला ने कसम खायी कि अब न झुनिया का मुंँह देखेंगे और न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी,वह अब टूट गयी थी। अब वह अपनी गाय के दाम लेंगे और नक़द और इसमें विलम्ब हआ तो होरी पर दावा करके उसका घरद्वार नीलाम करा लेंगे। गाँववालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। कोई उमका हुक्का नहीं पीता,न उसके घर का पानी पीता है। पानी वन्द कर देने की कुछ बातचीत थी;लेकिन धनिया का चण्डी-रूप सब देख चुके थे;इसलिए किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको मुना-गुनाकर कह दिया--किसी ने उसे पानी भरने से रोका,तो उसका और अपना खून एक कर देगी। इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिये। सबसे दुखी है झुनिया,जिसके कारण यह सव उपद्रव हो रहा है,और गोबर की कोई खोज-खबर न मिलना इस दुःख को और भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाये घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचाना मुश्किल हो जाय। दिन-भर घर के धन्धे करती रहती है और जब अवसर पाती है,गे लेती है। हरदम थर-थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे। अकेला भोजन तो नहीं पका सकती;क्योंकि कोई उसके हाथ का खायेगा नहीं,बाकी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री-पुरुष जमा हो जाते हैं,यही कुत्सा होने लगती है।

एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पण्डित दातादीन मिल गये! धनिया ने सिर नीचा कर लिया और चाहती थी कि कतराकर निकल जाय;पर पण्डितजी छेड़ने का अवसर पाकर कब चुकनेवाले थे। छेड़ ही तो दिया--गोबर का कुछ सर-सन्देश मिला कि नहीं धनिया? ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी।

धनिया के मन में स्वयं यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली--बुरे दिन आते हैं बाबा,तो आदमी की मति फिर जाती है,और क्या कहूँ।