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गो-दान
 

और उन्होंने इसके विरुद्ध प्रमाण देना शुरू किया। मालती जितना उनका आदर करती है,उतना शायद ही किसी का करती हो। राय साहब और राजा साहब को मुंँह तक नहीं लगाती;लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाक़ात न हो,तो शिकायत करती है...

गोविन्दी ने इन प्रमाणों को एक फूंँक में उड़ा दिया-इसीलिए कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आँखों का अन्धा समझती है, दूसरों को इतनी आसानी से बेवकूफ नहीं बना सकती।

खन्ना ने डींग मारी-वह चाहें तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं। आज,अभी...

मगर गोविन्दी को बिलकुल विश्वास नहीं है--तुम सात जन्म नाक रगड़ो,तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी। तुम उसके टट्ट हो,तुम्हें घास खिलायेगी, कभी-कभी तुम्हारा मुँह सहलायेगी, तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगी;लेकिन इसीलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाँठे। तुम्हारे-जैसे एक हजार बुद्ध उसकी जेब में हैं।

गोविन्दी आज बहुत बढ़ी जाती थी। मालूम होता है, आज वह उनसे लड़ने पर तैयार होकर आयी है। डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था। खन्ना अपनी योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे!

'तुम्हारे खयाल में मैं बुद्ध और मूर्ख हूँ,तो ये हज़ारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैं? कौन राजा या ताल्लुकेदार है, जो मुझे दण्डवत नहीं करता। सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ दिया।'

'यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूंँड़ता है,उसे वह उलटे छुरे से मूंँड़ती है।'

'तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करो,तुम उसकी पाँव की धूल भी नहीं हो।'

'मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गयी बीती है; क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है।'

दोनों ने अपने-अपने अग्नि-बाण छोड़ दिये। खन्ना ने गोविन्दी को चाहे दूसरी कठोर से कठोर बात कही होती,उसे इतनी बुरी न लगती;पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी। गोविन्दी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होता,वह इतने गर्म न होते;लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते। दोनों एक दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे। दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे। खन्ना की आँखें लाल हो गयीं। गोविन्दी का मुंँह लाल हो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़कर जोर से ऐंठे और तीन-चार तमाचे लगा दिये। गोविन्दी रोती हुई अन्दर चली गयी।

जरा देर में डाक्टर नाग आये और सिविल सर्जन मि० टाड आये और भिषगाचार्य नीलकण्ठ शास्त्री आये;पर गोविन्दी बच्चे को लिये अपने कमरे में बैठी रही। किसने क्या कहा,क्या तशखीश की,उसे कुछ मालूम नहीं। जिस विपत्ति की कल्पना वह कर