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गो-दान
 

गोबर ने सब को राम-राम किया। हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे,सभी में मित्रभाव था,सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी। रोज़ा रखनेवाले रोज़ा रखते थे। एकादशी रखनेवाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता,अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंग को बटखरे बनाता;लेकिन साम्प्रदायिक द्वेप का नाम भी न था।) गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी-खुशी विदा करना चाहते हैं।

इतने में भूरे एक्का लेकर आ गया। अभी दिन-भर का धावा मारकर आया था। खबर मिली,गोबर घर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाये। गोबर ने एक्के पर सामान रक्खा,एक्का बढ़ा,पहुंँचाने वाले गली के मोड़ तक पहुँचाने आये,तब गोबर ने सबको राम-राम किया और एक्के पर बैठ गया।

सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की खुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुंँचाने की खुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार,घोड़ा चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया।

गोबर ने प्रसन्न होकर एक रुपया कमर से निकाल कर भरे की तरफ बढ़ाकर कहा--लो,घरवालों के लिए मिठाई लेते जाना।

भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा--तुम मुझे गैर समझते हो भैया! एक दिन जरा एक्के पर बैठ गये तो मैं तुमसे इनाम लूंँगा। जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे,वहाँ खून गिराने को तैयार हूँ। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी लूंँ तो घरवाली मुझे जीता छोड़ेगी?

गोबर ने फिर कुछ न कहा। लज्जित होकर अपना असबाब उतारा और टिकट लेने चल दिया।


२०

फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुँचा था। आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगन्ध वाँट रहे थे,और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी।

गांँवों में ऊब की बोआई लग गयी थी। अभी धूप नहीं निकली;पर होरी खेत में पहुँच गया है। धनिया,सोना,रूपा तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गढ़े निकाल-निकालकर खेत में ला रही हैं,और होरी गॅड़ामे से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मजदूरी करने लगा है। किसान नहीं,मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मजदूर का नाता है।

दातादीन ने आकर डाँटा--हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।।

होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा--चला ही तो रहा हूँ महराज,बैठा तो नहीं हूँ।