{{rh|२७४||गो-दान'
ऊख तो गयी;लेकिन उसके साथ ही एक नयी समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने पर तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ पड़े हुए थे। सोचा था,ऊख के पुराने रुपए मिल जायँगे,तो नया हिसाव चलने लगेगा। उसकी नज़र में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियां कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असम्भव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जाकर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-विनती हो सकती थी,वह कर चुका;मगर वह पत्थर की देवी ज़रा भी न पसीजी। उसने चलतेचलते हाथ बाँधकर कहा-दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए लेकर भाग न जाऊँगा। न इतनी जल्द मरा ही जाता हूँ। खेत हैं,पेड़-पालो हैं,घर है,जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जायेंगे, मेरी इज्जत जा रही है,इसे संभालो; मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया;अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती,तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।
होरी ने घर आकर धनिया से कहा--अब?
धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला--यही तो तुम चाहते थे।
होरी ने ज़ख्मी आँखों से देखा-मेग ही दोप है?
'किसी का दोप हो,हुई तुम्हारे मन की।'
'तेरी इच्छा है कि ज़मीन रेहन रख दूँ ?'
'ज़मीन रेहन रख दोगे,तो करोगे क्या ?'
'मजूरी।'
मगर ज़मीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आवरू अवलम्बित थी। जिसके पास ज़मीन नहीं,वह गृहस्थ नहीं,मजूर है।
होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा-तो क्या कहती है?
धनिया ने आहत कण्ठ से कहा-कहना क्या है। गौरी बरात लेकर आयेंगे। एक जून खिला देना। सवेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हंसेगी,हँस ले। भगवान की यही इच्छा है,कि हमारी नाक कटे,मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे।
सहसा नोहरी चुंदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने ज़रा-सा चूंघट निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी।
धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा-आज किधर चलीं समधिन? आओ,बैठो।
नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आकर खड़ी हो गयी।
धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देखकर कहा-आज इधर कैसे भूल पड़ीं?