गोदान | ३५५ |
से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गये थे; पर चेहरे पर तेज था, देह गठी हुई। होरी उनके सामने बिलकुल बूढ़ा लगता था। किसी मुक़दमे की पैरवी करने जा रहे थे। यहाँ ज़रा दोपहरी काट लेना चाहते हैं। धूप कितनी तेज़ है, और कितने ज़ोरों की लू चल रही है ! होरी सहुआइन की दूकान से गेहूँ का आटा और घी लाया। पूरियाँ बनीं। तीनों मेहमानों ने खाया। दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे। बातें होने लगीं।
दातादीन ने पूछा--कैसा मुक़दमा है महतो?
रामसेवक ने शान जमाते हुए कहा--(मुक़दमा तो एक न एक लगा ही रहता है महाराज ! संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता। जितना दवो उतना ही लोग दबाते हैं। थाना-पुलिस, कचहरी-अदालत सब हैं हमारी रक्षा के लिए; लेकिन रक्षा कोई नहीं करता। चारों तरफ़ लूट है। जो गरीब है, बेकस है, उसकी गरदन काटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। भगवान न करे कोई बेईमानी करे। यह बड़ा पाप है; लेकिन अपने हक़ और न्याय के लिए न लड़ना उससे भी बड़ा पाप है। तुम्हीं सोचो, आदमी कहाँ तक दबे ? यहाँ तो जो किसान है, वह सवका नरम चारा है। पटवारी को नज़राना और दस्तूरी न दे, तो गाँव में रहना मुश्किल। ज़मींदार के चपरासी और कारिन्दों का पेट न भरे तो निवाह न हो। थानेदार और कानिसिटिविल तो जैसे उसके दामाद हैं, जब उनका दौरा गाँव में हो जाय, किसानों का धरम है कि वह उनका आदरसत्कार करें, नजर-नयाज दें, नहीं एक रिपोट में गाँव का गाँव बँध जाय। कभी कानूनगो आते हैं, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी, कभी जण्ट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर, किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाजिर रहना चाहिए। उनके लिए रसद-चारे, अंडे-मुर्गी, दूध-घी का इन्तजाम करना चाहिए। तुम्हारे सिर भी तो वही बीत रही है महाराज! एक-न-एक हाकिम रोज नये-नये बढ़ते जाते हैं। एक डाक्टर कुओं में दबाई डालने के लिए आने लगा है। एक दूसरा डाक्टर कभी-कभी आकर ढोरों को देखता है, लड़कों का इम्तहान लेनेवाला इसपिट्टर है, न जाने किस-किस महकमे के अफ़सर हैं, नहर के अलग, जंगल के अलग, ताड़ी-सराव के अलग, गाँव-सुधार के अलग, खेती-विभाग के अलग। कहाँ तक गिनाऊँ। पादड़ी आ जाता है, तो उसे भी रसद देना पड़ता है, नहीं शिकायत कर दे। और जो कहो कि इतने महकमों और इतने अफ़स रों से किमान का कुछ उपकार होता हो, तो नाम को नहीं। कभी ज़मीदार ने गाँव पर हल पीछे दो-दो रुपये चन्दा लगाया। किसी बड़े अफ़सर की दावत की थी। किसानों ने देने से इनकार कर दिया। बस, उसने सारे गाँव पर जाफा कर दिया। हाकिम भी ज़मीदार ही का पच्छ करते हैं। यह नहीं सोचते कि किसान भी आदमी हैं, उनके भी बाल-बच्चे हैं, उनकी भी इज्जत-आबरू है। और यह सब हमारे दब्बूपन का फल है। मैंने गाँवभर में डोंडी पिटवा दी कि कोई बेसी लगान न दो और न खेत छोड़ो, हमको कोई कायल कर दे, तो हम जाफा देने को तैयार हैं; लेकिन जो तुम चाहो कि बेमुंँह के किसानों को पीसकर पी जायें तो यह न होगा। गाँववालों ने मेरी बात मान ली, और सवने जाफा देने से