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गोदान
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कर जीभ दाँत से काटती हई बोली-अरे,यह तो तुम्हारा गांव आ गया!तुम भी बड़े मुरहे हो,मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ।

यह कहकर वह लौट पड़ी।

गोबर ने आग्रह करके कहा--एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती?अम्माँ भी तो देख लें।

झुनिया ने लज्जा से आँखें चुराकर कहा--तुम्हारे घर यों न जाऊंगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गयी।अच्छा,बताओ अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आना,मै अपने पिछवाड़े मिलूंगी।

'और जो न मिली?'

'तो लौट जाना।'

'तो फिर मैं न आऊँगा।'

'आना पड़ेगा,नही कहे देती हूँ।'

'तुम भी बचन दो कि मिलोगी?'

'मैं बचन नहीं देती।'

'तो मैं भी नहीं आता।'

'मेरी बला से!'

झुनिया अँगूठा दिखाकर चल दी। प्रथम-मिलन में ही दोनों एक दूसरे पर अपनाअपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी,वह आयेगा,कैसे न आयेगा? गोबर जानता था,वह मिलेगी,कैसे न मिलेगी।


गोबर जब अकेला गाय को हाँकता हुआ चला,तो ऐसा लगता था,मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।

जेठ की उदास और गर्म सन्ध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मण्डप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिये गये थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। राय साहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे,नीले साफे बाँधे,जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे,मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आकर रुकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं उनका नाम पण्डित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र'बिजली'के यशस्वी सम्पादक हैं,जिन्हें देश-चिन्ता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट-पैंट में हैं,वह हैं तो वकील,पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा कम्पनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने में वकालत से कहीं ज्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने