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गो-दान
 


हुए हैं,मिस्टर बी० मेहता,युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन राय साहब के सहपाठियों में हैं और शगून के उत्सव में निमन्त्रित हुए हैं। आज सारे इलाके के आसामी आयेंगे और शगून के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष-यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगून के दे दिये हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहने,गुलाबी पगड़ी बाँधे,घुटने तक कछनी काछे,हाथ में एक खुरपी लिये और मुख पर पाउडर लगवाये राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है।

राय साहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे,गठा हुआ शरीर,तेजस्वी चेहरा,ऊँचा माथा, गोरा रंग,जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी।

पण्डित ओंकारनाथ ने पूछा-अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार है?मेरे ग्म की तो यहाँ वही वस्तु है।

राय साहब ने तीनों सज्जनों को अपनी रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा-- पहले तो धनुष-यज्ञ होगा,उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लम्बा कि शायद पाँच घण्टों में भी खतम न हो और कोई इतना क्लिप्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला,जो दो घण्टों में पूरा हो जायगा।

ओंकारनाथ को राय साहब की रचना-शक्ति में बहुत सन्देह था। उनका खयाल था कि प्रतिभा तो गरीबी ही में चमकती है दीपक की भाँति,जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथ,जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेप्टा नहीं की, पंडित ओंकारनाथ ने मुंह फेर लिया।

मिस्टर तंखा इन वेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे,फिर भी राय साह्न को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले-- नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है,अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं,हमारी नाट्य-कला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौसिल मे प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेम्बर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है।

दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे पर सिद्धान्त की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी,उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले-भाई,मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं,उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते है,जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं,बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं,फिर भी आप जमींदार हैं,वैसे ही जमींदार जैसे हजारों और जमी