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पृष्ठ:चंदायन.djvu/१३२

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१२२ कँवल क फल जीभ सिंह मॉहा । अघर वानि कहि आछै छोहा ॥४ यानि जैसि मुस जीभ अमोला । फूल झरहिं जोहॅसि-हँसि बोला ॥५ सँरका राउ रूपचन्द, धरहु धरहु चिल्लाइ ।६ यानि फूल अंचरित जस चॉदा, अभै गई दिखराइ ॥७ टिप्पणी-(३) पोनारी-पनाली, पानीकी नाली । (७) अवरित-अमृत। ८४ (रेण्ड्स ४८४) सिफ्ते गोशहाय चाँदा गोयद (कर्ण वर्णन) सुवन सीप चन्दन घिसि भरे । फूंक परन [--*] अति गॅवरे ॥१ लाँव न छोट धूल न तिये । कान कनक जनु झरकॅहि दिये ॥२ गौर कपोल रूप अति लोने । कौंधा सरग लपॅहि दुहुँ कोने ॥३ दुहुँ गालहि घी के चिकनाई । जनु आरसी दुहुँ दिसि लाई ॥४ अमरित कुण्ड सेंक कर भरा । अइस नजानों काह किहँ धरा ॥५ अमर सबद सो चॉदा, मुस अमरित धन पार ६ ___इत चोल सुन राजा, भुई उठि बइठ संसार ॥७ टिप्पणी-(१) मुवन-श्रवण, कान । (२) थूल-स्थल, मोरा । तिये-पतला । (३) कांधा-बिजली । स्वहिल्पकते हैं, चमक्त हैं। (रिदम ४८५ ; यम्बई) सिफ्ते साले चाँदा गोयद (तिल वर्गन) नैन सवन विच तिल एक परा | जान परहि मँसि धुंदका घरा ॥१ मुसक सोहाग भयउ तिल संगू । पदम पुष्टुप सिर बैठ भुजंगू ॥२