१२६ थाल रँगने आदिके काममे लती हैं। कॉपर-चौडा, किन्तु कम गहरा, पटोरेपे आकारका पात्र, जो शुभ अवसरोपर प्रयोग होता है। अप्रवाल जातिमे इसका प्रयोग विशेष रूपसे कन्यादान समर किया जाता है। (३) सुहारी-जिसे सामान्यत पृडी (पूरी) कहते हैं, वह अवध और भोजपुर में सोहारी कहीं जाती है । यहाँ उसी से तात्पर्य है । पर कही कहीं आटे को बेल कर धूप में सुखाने के पश्चात् घी में तली हुई पूरी को सोहारी कहते हैं। (७) अवगाह-अगाध । (रेण्ड्म ५१) सिफ्ते पुस्त चाँदा गोषद (पीठ पर्णन) घोटहिं घोट पीठ सारी । गडी बनाई साँचे हारी ॥१ कर चूर हीर पात क दोवा । पीठ ठॉउ सहज दुइ मोवा ॥२ लंक पार जस देह न आवड । चाँद चीर मैंह भरम दिखावइ ॥३ परे लंक बिसेसै धनॉ। और लंक पातर कर गुनाँ ॥४ फॅकहि टूट होई दुइ आधा । नैन देख मन उपजै साधा ॥५ मूस होइ जो तरै न जाने, चाहे पवरै पाउ ६ कर गुन भये पीठ भा, बूढ़त काढ़ा राउ ॥७ (गण्ड्स 41 य ; पंजाव []) सिफते रानहा व रफ्तार चाँदा गोयद (जानु एव चाल घर्गन) कदरि कम्भ'दोड चीर पहिराये। चाँद चलन अपुरुष घर लाये ॥१ औ समतोल दीस अनि धारा । देस विमोहे सरंग पतारा ॥३ देखि कम्भ मोर मन तम लागा । मरमें धरउँ खाल के नाँगा ॥३
पृष्ठ:चंदायन.djvu/१३६
दिखावट