पृष्ठ:चंदायन.djvu/१६१

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झिरक लोह जनु अदनल भानू । डरहूँ दूसर सूझि न आनें ॥३ देखि बाँठ राजा पहँ आवा । चॉद कहा सूरज चलि आवा ॥४ उठ झार उर रहै न जाई । हाथि घोर सब चला पराई ॥५ झुजहु बॉठ ते जीतब, आइ लोर छंदलाइ ।६ सूर बीर से मारब, तिहँ मॅह एक न जाइ ॥७ टिप्पणी-(१) पखरे-लोहेये झूल्से सुसज्जित । १२८ (रीरेण्ड्स ७३) सिफ्ते मुस्तैदिये फौज लोरक ( लोरकी सेनाकी तत्परता) निसरत लोर सैन नीसरी । एक एक जन घरकहिं अगरी ॥१ लउकहिं खड़ग दॉत लै बहिरे । वॉधे वाट जिव रुधिर धरे ॥२ झलकहिं ओडन तानें तरे । बाँधे परै लोहें जरे ॥३ पटोर तारसार के पहने । भये अतै बजर के बने ॥४ सीह सिंदूर दरेरै धरे । भाजहिं देस घोर पाखरे ॥५ नियरें नियरा पायक, चढ़ा सहस बर राउ ।६ अचल चलायें न चलें, रहे रोप धर पाउ ॥७ टिप्पणी-(५) सींह-सिंदूर-इसका उल्लेख दो अन्य स्थले पर भी हुआ है (१९६।३, २०५१६) । सर्वन सीन, ये, नन, है, और सीन, नून दाल, वाव, रे बहुत स्पष्ट रूपसे लिसे गये हैं। पहले शब्दके सीह पाटमं कोई सन्देह नहीं हो सकता । दूसरे शब्दको सन्दूर, संदूर, सिन्दूर, सिंदूर, कुछ भी पढा जा सकता है। पदमायतमं भी यह शब्द युग्म दो बार आया है (१४४१६; ६३६।९) । वहाँ माताप्रसाद गुसका पाठ है-सिघ सदूरा, सिंह सदूरहि । मधुमालतोमे उन्होंने सीह सेदूर (१००१२; १८११२) पाठ दिया है। वासुदेवशरण अग्रवालने इनका तात्पर्य सिह और शार्दूल बताया है। और यही अर्थ माताप्रसादगुसने मधुमालतीमे स्वीकार किया है । रादूर अथवा सेदूर हमारी दृष्टि में नुक्नोंके अभावमै अपपाठ है। वास्तविक पाठ सिंदूर, सिन्दूर अथवा सेंदूर है । और वह अपने मूल रूपमें