पृष्ठ:चंदायन.djvu/१६२

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१५२ सिन्धुर है, जिसका अर्थ होता है हायो । मध्यकालीन कलम सिंह हस्ति एक अति प्रनलित 'मोटिप' रहा है। (७) रोप-(धा-नोपना), गाटना, दृढ करना। (४) तारसार-लोटेवे तार का बना हुआ (सार-लोहा (मुये सालकी गाँस सो सार भसम रोद जाय)। १२९ (रीरेण्ड्स ८८) हैबत खुर्द ने रूपचन्द व पिरिम्नादने भट (रूपचन्दमा भयभीत होकर दूत भेजना) चहुँ दिसि देस राउ डरि आवा । रहा अचल होइ चलन चलावा॥१ जोर चलाहिं जाड कहाँ । कौन उतर अस दीजै तहाँ ॥२ ओछे दर हम वाजे आये । अनैं पौर अब जाइ न जाये ॥३ देस मॅदिर महँ लागी लाजा । पोर राउ औ जिहँ सहँ भाजा ॥४ काहू सा मन्त करे चितारे । जे रहे मॉन सो आगें हारे ॥५ राइ भाट कह पठये, महर गढ़ अब गाउ ।६ एक एक सहँ अझे, दूसर नर नहिं आउ ॥७ १३० (रीरेण्ड्स ८९) चाज गम्तने भट व जग गर्दने सीह व बुस्तः शुदन ऊ (दूतम लौटना : युद्ध में सौहमा मारा जाता) बहुरे भाट दिवाई पानॉ। महर घोल राजा कर मानाँ ? चाँठ झुझार फुरै लै आवा । पाठे सरे नहिं जिंह कर पात्रा १२ सीह सिंगार वीर दुइ आये । राड मया कर पान दिवाये ॥३ ओडन सीह झकोर ऊतरा । हाथ सड़ग खसि धरती परा ॥४ चढ़हत अनै चुमगुनसभयऊँ । सीह सिंगार लौट रन गयऊ।।५