पृष्ठ:चंदायन.djvu/१८९

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१७६ १६९ (रीलैण्ड्स १२०) मना कर्दने बिरस्पत लोरक रा कि इन हिकायत न गोयद (विरस्पतका हर यातको छिपा रखनेको लोरकसे कहना) सुनु लोरक अस बात न कहिये । जो कहै इह देस न रहिये ॥१ वह तो आह महर के धिया | चॉद नाउँ धौराहर दिया ॥२ सो से दीख वीजु परियारी । लखें तोर चितै गई न मारी ॥३ तरह जाकर सेज रिछावहिं । सवनै नसत निसि पहरे आवहिं ॥४ मन के सोंक हिंय हुत धोरहु । जे भृज सुख निदरा सोनहु ॥५ इत राजा के दुआर, औ निसि सरग बसेर ६ जिहँ का राज पिरिथ में, तिहँ तू गरब न हेर ॥७ टिप्पणी-(४) तरह-तारागण | सवनें--सभी । (५) जेई भूज-सा पीकर । (बम्बई १६, रीलैण्ट्स १२८) मिन्नत कर्दन लेरक पेश बिरस्पत (लोरकका बिरस्पतसे अनुनय ) चाँद क उतर पिरस्पत कहा । सूरुज दुहँ पायें पर रहा ॥१ आजु विरस्पत सुदिन हमारा' । मुखाकॅपल जिहें देसि तुम्हारा ॥२ कहु सो बात जिहें होड मिराया। भल जो करे भलाई पावा ॥३ कै पिस ल मॅहि आन सियाबहु ।कै सो मॅत्र-विधि आज जियारहु ॥४ किरपाल दस नस मुँह मेला । पाँय परत रिस्पत ठेला ॥५ पॉय न ठेलु चिरस्पत, हा तो चेर तुम्हार । बचन वोर मॅहि औसद, खसि न जीउँ हमार ॥७