पृष्ठ:चंदायन.djvu/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८२
 

१८२ १७४ (रीलैण्ड्स १३२) जोगी शुदने लोरव व नशिस्तन दर तसानये बुत (मन्दिरमें लोररुका जोगी बन कर बैठना) सुचन फटिक मुंदरा सरसेली । कण्ठ जाप रुदराकै मेली ॥१ चकर जगौटा गूंथी कंथा । पायें पावरी गोरसपन्या ॥२ मुस भभूत कर गही अधारी । छाला चैस क आसन मारी ॥३ दण्ड असर चैन के पूरी | नेह चारचा गावइ झोरी ॥४ कर किंगरि तिहॅ बार वजावइ । जिहें चॉदा मुख चितरा पायइ॥५ सिघ पुरुस मड़ेि चैठउ, घर तर सूर दुवार ।६ भगत मोर बनखेड गये, चॉद नाम ना निमार ॥७ टिप्पणी-(१) मुवन-धनण, कान । फटिकरपाटय । मुंदरा-मुद्रा, पानमें पहननेया पुण्डल | सरसेटी-छेदार पहना | जाप--माला । रदरा-द्राक्ष। (२) धर-बर, सम्भवतः डोटी गोल अंगटी जिसे पवित्री यहते हैं (वासुदेवशरण अग्रगर)। जगोटा-(स योगपट्ट) यह यस्त्र जिसे योगी ध्यान करते समय सिरसे पैरों तर डाल लेते हैं। अन्य अवस्था में यह पन्धे पर रहता है। कथा-कथरी, गुदरी, पटे पुराने वपरोसे बनाया गया यत्र । पाये-पैर । पायरी (म. पादपह>पा. पायव > पावड>पावडा, पॉवरि)-पडाऊ। (३) भभूत-भन्म । अधारी-पदीरा यना सहारा जिसको टेककर योगी पेटते और गोते हैं। हाला-चर्म । सम्भवत यहाँ वाघम्परते तात्पर्य है । जायधने योगी येरे प्रमगम पहालवा उप किया है (पदमावत, १०६६)। () गिरि-मेटा निकारा या गारंगी, मेि बार जेगी भीष माँगते है।