१८७ रस अहार सॅह देह अधाई । विरह झारै रस न वुझाई ॥३ बहुल रसायन देरोउँ चासी । रस कहानी कहु मह भाखी ॥४ रस कै रात सपूरन [भावइ*] । औ रस मनसुख निंदराआवइ ॥५ का रस बचन विरस्पत, जिहिं चित करउँ मिठाइ ।६ रस के घडे भरावगु, दुस संताप तब जाइ ||७ (रीलैण्ड्म १४१) जवाब दादन विरस्पतका चॉदा रा (विरस्पतमा चाँदको उत्तर) तूं रस बिरस चॉद का जानसि । हौ रस कहो घिरत जो सानसि ॥१ घिरत साँड सों करउँ मिरावा । चॉद जइस अपनहि तुम पावा ॥२ रस पर जिहि कै परे अहारू । रसहि पूर आछहिं संसारू ॥३ रस के दाध अन-पानि न भावा । रस जो आन औसद बड लावा।।४ रस कै पात चितहि जो धरसी। रस कै घडे बिरस जनु करसी ॥५ रस के कुण्ड परा मढि, सँवर गुन खीर १६ रस कह यूड धरु चाहै, चॉदा लाबहु तीर ॥७ १८६ (रीरैण्ड्स :१२) जबाबदादन चाँदा भर बिरस्पत रा बागुस्सा (चाँदका विरस्पत पर शोध) निलज विरस्पत लाजन धरसी। महि भिसारि सो सरभर करसी॥१ बिरस्पत तोरे मन अस आवा | जो तै मढ़ि सॅवर दिखराया ॥२ जिहें सन चॉद सुरुज दिखरावा । तिहँ दिनहुत महिं अउर नभाव।।३ नैन पैसि चित कीनसि थाने । पाच कीन्हि हो अन्त न जानें ॥४ से जो देसाइ विरस्पत कहा । सो हीउ मै लागि चिंत रहा ॥५
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