पृष्ठ:चंदायन.djvu/२९१

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२८२ ३५४ (रीटेण्ड्स २६८ : मनेर १६९४) ऐजन (वहीं) जेहि र पिरम सिंह विरह सतावई । विरह जेहि सिंह पिरम सुहावई' ॥१ विरह सेलि धरी, उनियारी' । वेग न जोर विरह कर मारी ॥२ विरह पीर तिहि पूछउ जाई । जिन यह काल गर वीचे खाई ॥३ पिरम घाउ औखद न माने । पिरम वान जिंह लाग सो जाने ॥४ भल फुनि होइ खरग कर मारा । जरम न पलुबहि बिरहकर जारा ॥५ कोउ भाँत न जीवत देखेउँ, पर पिरम के चेलि ।६ पिरम खेल सो नै खेले, सो सर से खेलि ॥७ पाठान्तर-मनेर प्रवि- शीर्षक-दर शौक व मुहम्दते ऊ गुफ्तारी (प्रेमके स्वरूपका वर्णन)। इस प्रतिमें पंक्ति ३, ४, ५ क्रमशः ५,३,४ हैं। १ सतावा । २-हि र विरह तिह नींद न आया | ३-पिरम सेल उहै उनियारा । ४-परग न जाइ पिरम वर मारा। ५-पिरम पाउ नहि जहि जाई। जिंह यह पाल (भाल) क्रेजें साई। ६-खाँगा। ७-पिरम । ८-कौनिउँ भाँति न पटत देसउँ, पहि र पिरम के चेलि । ९--पिरम रोल सोइ पर सेल, जो सर से खेलि । टिप्पणी-(३) फाल-तेज धार । 'माल' पाठ मी सम्भव है । उस समय अर्थ माला । गरगला। (१) पलुपहि-परवित होए । (रोरेट्स २६८५ : मनेर १६६४) ऐजन (यही) चाँद लागि मैं यह दुस देसी । गुनित न आयइ एका लेखी ॥? मारेउँ चाँठ कियउँ' सुधराई । रासेउँ महर के महराई ॥२ परेउँ साट लै विरह जो मारा | आइ विरसत दीन्हि अधारा ॥३