पृष्ठ:चंदायन.djvu/३४०

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४४५ (रीरेण्ड्स ३२०) ऐजन (वही) पिरम समुंद अति अवगाहा । जो जग वृद्धि न पावइ थाहा ॥१ चहुँ दिसि कसे थाह न पावइ । मानुस बृ तीर न आवइ र मोरे रोय सायर भये । धरती पूर सरग लहि गये ॥३ फटि आँस जनु आँसु भये । पर सो छाइ पानि न रहै ॥४ यह गुन हों तौर न देखेउँ । रात चॉद दिन सूरज लेसउँ ॥५ जान देइ घर आपुन, मोरहि सास मुहिं माइ १६ पिय संताप सुन पैठउँ, काल पाम तुम आइ ॥७ ४४६ (रीलंण्ड्म ३२०५ : यम्बई ५६) बाज रफ्तने मैंना दर वेगॉ या सहेलियान खुद (मैनाका सहेलियोंके साथ बेंगासे वापस जाना) उदये भानु औ रात बिहानी । महरी देवहा जाइ' तुलानी 11१ - मैंना देखत मँदिर बुलाई । बहुरि चाँद वह वात चलाई ॥२ कहु इँह मैनाँ मुरुज' जस करा । सो ले चॉदहिं पाटन' घर ॥३ महें तज सुरुज चंद ले भागा । बरहाँ माँस आइ अब लागा ॥४ जो कहूँ चाँद हो पाऊँ । कार के मुँह नगर फिराऊँ ॥५ जस 4 कीत सँझाई, तस जग फर न कोइ।६ जइस दाहं महिं दीन्हों, तइस दाह यहि होइ ॥७ पाठान्तर---चम्बई प्रति-~- शोध-अज शवे मुबह गाह रोशन बरामदन व वेरसीदने मैंना व . रसीदने चाँदा (मुबह होने पर मनाया जाना और चाँदवा बुलाना) १-मानु रात बिहानी। २-आइ। ३- ३ भुरुज चाँद ।