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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१०१

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से होगी, मगर माधवी ही की ताक में लगे रहने से कई दिनों तक उनका मतलब सिद्ध नहीं हुआ।

अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह उस दालान में ज्यादा टहलने लगे जिसमें सुरंग के दरवाजे वाली कोठरी थी। एक दिन आधी रात के समय माधवी का पलंग खाली देख इन्द्रजीतसिंह ने जाना कि वह बेशक दीवान से मिलने गई है। वह भी पलंग से उठ खड़े हुए और खूटी से लटकती हुई एक तलवार उतारने के बाद जलते शमादान को बुझा उसी दालान में पहुँचे जहाँ इस समय बिल्कुल अँधेरा था और उसी सुरंग वाले दरवाजे के बगल में छिप कर बैठ रहे। जब पहर भर रात बाकी रही उसी सुरंग का दरवाजा भीतर से खुला और एक औरत ने इस तरफ निकल कर फिर ताला बन्द करना चाहा, मगर इन्द्रजीतसिंह ने फुर्ती से उसकी कलाई पर कर ताली छीन ली और कोठरी के अन्दर जा भीतर से ताला बन्द कर लिया।

वह औरत माधवी थी जिसके हाथ से इन्द्रजीतसिंह ने ताली छीनी थी। वह अँधेरे में इन्द्रजीतसिंह को पहचान न सकी। हाँ, उसके चिल्लाने से कुमार जान गए कि यह माधवी है।

इन्द्रजीतसिंह एक दफे उस सुरंग में जा ही चुके थे, उसके रास्ते और सीढ़ियों को वे बखूबी जानते थे, इसलिए अंधेरे में उनको बहुत तकलीफ न हुई और वे अन्दाज से टटोलते हुए तहखाने की सीढ़ियाँ उतर गए। नीचे पहुँच कर जब उन्होंने दूसरा दरवाजा खोला, तो उन्हें सुरंग के अन्दर कुछ दूर पर रोशनी मालूम हुई जिसे देख उन्हें ताज्जुब हुआ और बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, जब उस रोशनी पास पहुँचे एक औरत पर नजर पड़ी जो हथकड़ी और बेड़ी के सबब उठने-बैठने से बिल्कुल लाचार थी। चिराग की रोशनी में इन्द्रजीतसिंह ने उसको और उसने इनको अच्छी तरह देखा और दोनों ही चौंक पड़े।

ऊपर जिक्र पूरा आ जाने से पाठक समझ ही गये होंगे कि यह किशोरी है जो तकलीफ के सबब बहुत ही कमजोर और सुस्त हो रही थी। इन्द्रजीतसिंह के दिल में उसकी तस्वीर मौजूद थी और इन्द्रजीनसिंह उसकी आँखों में पुतली की तरह डेरा जमाये थे। एक ने दूसरे को बखूबी पहचान लिया और ताज्जुब मिली हुई खुशी के सबब देर तक एक-दूसरे की सूरत देखते रहे, इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने उसकी हथकड़ी और बेड़ी खोल डाली और प्रेम से हाथ पकड़ कर कहा, "किशोरी! तू यहाँ कैसे आ गई?"

किशोरी–(इन्द्रजीतसिंह के पैरों पर गिर कर) अभी तक तो मैं यही सोचती थी कि मेरी बदकिस्मती मुझे यहाँ ले आई मगर नहीं, अब मुझे कहना पड़ा कि मेरी खुशकिस्मती ने मुझे यहाँ पहुँचाया और ललिता ने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मुझे लेकर आई, नहीं तो न मालूम कब तक तुम्हारी सूरत...

इससे ज्यादा बेचारी किशोरी कुछ कह न सकी और जार-जार रोने भगी। इन्द्रजीतसिंह भी बराबर रो रहे थे। आखिर उन्होंने किशोरी को उठाया और दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़े हुए बोले-