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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१०२

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"हाय, मुझे कब उम्मीद थी कि मैं तुम्हें यहाँ देखूगा। मेरी जिन्दगी में आज की खुशी याद रखने लायक होगी। अफसोस, दुश्मन ने तुम्हें बड़ा ही कष्ट दिया!" किशोरी-बस, अब मुझे किसी तरह की आरजू नहीं है। मैं ईश्वर से यही माँगती थी कि एक दिन तुम्हें अपने पास देख लूँ सो मुराद आज पूरी हो गई। अब चाहे माधवी मुझे मार भी डाले तो मैं खुशी से करने को तैयार हूँ।

इन्द्रजीतसिंह-जब तक मेरे दम में दम है किसकी मजाल है जो तुम्हें दुःख अब तो किसी तरह इस सुरंग की ताली मेरे हाथ में लग गई है जिससे हम दोनों को निश्चय समझना चाहिए कि इस कैद से छुट्टी मिल गई। अगर जिन्दगी है तो मैं माधवी से समझ लूँगा, वह जाती कहाँ है?

इन दोनों को यकायक इस तरह के मिलाप से कितनी खुशी हुई, यह ये ही जानते होंगे। दीन-दुनिया की सुध भूल गये। यह याद ही नहीं रहा कि हम कहाँ जाने वाले थे, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं और क्या करना चाहिए। मगर यह खुशी बहुत ही थोड़ी देर के लिए थी, क्योंकि इसी समय हाथ में मोमबत्ती लिए एक औरत उसी तरफ से आती हुई दिखाई दी जिधर इन्द्रजीतसिंह जाने वाले थे और जिसको देख ये दोनों ही चौंक पड़े।

वह औरत इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँची और बदन का दाग दिखला बहुत जल्द जाहिर कर दिया कि वह चपला है।

चपला-इन्द्रजीतसिंह! हैं, तुम यहाँ कैसे आए! (चारों तरफ देख कर) मालूम होता है बेचारी किशोरी को तुमने इसी जगह पाया है।

इन्द्रजीतसिंह-हाँ, यह इसी जगह कैद थी, मगर मैं नहीं जानता था। मैं तो माधवी के हाथ से जबर्दस्ती ताली छीन इस सुरंग में चला आया और उसे चिल्लाता ही छोड़ आया।

चपला-माधवी तो अभी इसी सुरंग की राह से वहाँ गई थी।

इन्द्रजीतसिंह-हाँ, और मैं दरवाजे के पास छिपा खड़ा था। जैसे ही वह ताला खोल अन्दर पहुँची वैसे ही मैंने पकड़ लिया और ताली छीन इधर आ भीतर से ताला बन्द कर दिया।

चपला-तुमने बहुत बुरा किया, इतनी जल्दी कर जाना मुनासिब न था। अब तुम दो रोज भी माधवी के पास नहीं गुजार सकते, क्योंकि वह बड़ी ही बदकार और चाण्डालिन की तरह बेदर्द है, अब वह तुम्हें पावे तो किसी-न-किसी तरह धोखा दे बिना जान लिए कभी न छोड़े।

इन्द्रजीतसिंह-आखिर मैं ऐसा न करता तो क्या करता? उधर जिस राह से तुम आयी थी अर्थात् पानी वाली सुरंग का मुहाना मेरे देखते-देखते बिल्कुल बन्द कर दिया गया जिससे मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे आने-जाने की खबर उस शैतान की बच्ची को लग गई और तुम्हारे मिलने या किसी तरह की मदद पहुँचने की उम्मीद बिल्कुल जाती रही, पर नामर्दों की तरह मैं अपने को कब तक बनाये रहता, और अब मुझे माधवी के पास लौट जाने की जरूरत ही क्या है?