शिवदत्त की लड़की है और उसका नाम किशोरी है। राजा वीरन्द्रसिंह के लड़के इन्द्रजीतसिंह पर रानी माधवी मोहित गई थी और उनको अपने यहाँ किसी तरह से फँसा लाकर खोह में रख छोड़ा था। इन्द्रजीतसिंह का प्रेम इस किशोरी पर था इसलिए उसने ललिता को भेज कर धोखा दे किशोरी को भी अपने फंदे में फंसा लिया था। वह भी कई दिनों से यहाँ कैद थी और वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग भी कई दिनों से इसी शहर में टिके हुए थे। किसी तरह मौका मिलने पर इन्द्रजीतसिंह किशोरी को ले खोह से बाहर निकल आए और यहाँ तक नौबत आ पहुँची।"
राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों का नाम सुन मारे डर के अग्निदत्त काँप उठा, बदन के रोंगटे खड़े हो गए, घबराया हुआ बाहर निकल आया और अपने दीवानखाने में पहुँच मसनद के ऊपर गिर भूखा-प्यासा आधी रात तक यही सोचता रह गया कि अब क्या करना चाहिए।
अग्निदत्त समझ गया कि कोतवाल साहब को जरूर वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने पकड़ लिया है और अब किशोरी को अपने यहाँ रखने से किसी तरह जान न बचेगी, फिर भी वह किशोरी को छोड़ना नहीं चाहता था और सोचते-विचारते जब उसका जी ठिकाने आता तब यही कहता कि "चाहे जो हो, किशोरी को कभी न छोड़ेंगा!
किशोरी को अपने यहाँ रखकर सलामत रहने की सिवाय इसके उसे कोई तरकीब न सूझी कि वह माधवी को मार डाले और स्वयं राजा हो बैठे। आखिर इसी सलाह को उसने ठीक समझा और अपने घर से निकल माधवी से मिलने के लिए महल की तरफ रवाना हुआ, मगर वहाँ पहुँच कर सारी बातें मामूल के खिलाफ देख और भ हो गया। उसे उम्मीद थी कि खोह का दरवाजा बन्द होगा मगर नहीं, खोह का दरवाजा खुला हुआ था और माधवी की सब सखियाँ जो खोह के अन्दर रहती थीं,महल में ऊपर नीचे चारों तरफ फैली हुई थीं और रोती हुई इधर से उधर माधवी को खोज रही थीं।
रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी, बाकी रात भी दीवान साहब ने माधवी की सखियों का इजहार लेने में बिता दी और दिन-रात का पूरा अखण्ड उपवास किये रहे। देखना चाहिए, इसका फल उन्हें क्या मिलता है।
शुरू से लेकर माधवी के भाग जाने तक का हाल उसकी सखियों ने दीवान साहब को कह सुनाया। आखिर में कहा, "सुरंग की ताली माधवी अपने पास रखती थी। इसलिए हम लोग लाचार थीं, यह सब हाल आपसे कह न सकीं।"
अग्निदत्त दाँत पीस कर रह गया। आखिर यह निश्चय किया कि कल दशहरा (विजयदशमी) है, गद्दी पर खुद बैठ राजा बन और किशोरी को रानी बना नजरें लूंगा, फिर जो होगा देखा जायगा। सुबह को वह जब अपने घर पहुंचा और पलंग पर जाकर लेटना चाहा, वैसे ही तकिए के पास एक तह किये हुए कागज पर उसकी नजर पड़ी। खोल कर देखा तो उसी की तस्वीर मालूम पड़ी, छाती पर चढ़ा हुआ एक भयानक सूरत का आदमी उसके गले पर खंजर फेर रहा था! इसे देखते ही वह चौंक पड़ा। डर और चिन्ता ने उसे ऐसा पटका कि बुखार चढ़ आया, मगर थोड़ी ही देर में चंगा हो घर के बाहर निकल फिर तहकीकात करने लगा।
च॰ स॰-1-6-