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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१२६

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जहाँ के कुल मकान कच्चे और खपड़े की छावनी के हैं। इसी आबादी में से दो आदमी स्याह कम्बल ओढ़े बाहर निकले और फलगू नदी की तरफ रवाना हुए।

रामशिला पहाड़ी से पूरब फलगू नदी के बीचोंबीच में एक बड़ा भयानक ऊँचा टीला है। उस टीले पर किसी महात्मा की समाधि है और उसी जगह पत्थर की मजबूत बनी हुई कुटी में एक साधु भी रहते हैं। उस समाधि और कुटी के चारों तरफ बेर, मकोइचे, धौ इत्यादि जंगली पेड़ों से बड़ा ही गुंजान हो रहा है, और वहाँ जमीन पर पड़ी हुई हड्डियों की यह कैफियत है कि बिना उन पर पैर रखे कोई आदमी समाधि या उस कुटी तक जा ही नहीं सकता। छोटी-बड़ी, साबुत और टूटी सैकड़ों तरह की खोपड़ियाँ इधर से उधर लुढ़क रही हैं। न मालूम कब और क्यों कर इतनी हड्डियाँ चारों तरफ जमा हो गईं। उस आबादी से निकले हुए दोनों आदमी इसी टीले की तरफ जा रहे हैं।

कोई साधारण आदमी ऐसी अँधेरी रात में उस टीले की तरफ जाने का साहस कभी नहीं कर सकता, मगर ये दोनों बिना किसी तरह की रोशनी साथ लिए अँधेरे में ही हड्डियों पर पैर रखते और कँटीली झाड़ियों में घुसते चले जा रहे हैं। आखिर ये दोनों कुटी के पास जा पहुँचे, और दरवाजे पर खड़े होकर एक ने ताली बजाई।

भीतर से-कौन है?

एक-किवाड़ खोलो।

भीतर से-क्यों किवाड़ खोलें?

एक-काम है।

भीतर से-तुम लोग हमें व्यर्थ तंग करते हो।

साधु ने उठकर किवाड़ खोला और वे दोनों अन्दर जाकर एक तरफ बैठ गये। भीतर धनी के जलने से कुटी अच्छी तरह गर्म हो रही थी, इसलिए उन दोनों ने कम्बल उतारकर रख दिया। अब मालूम हुआ कि ये दोनों औरतें हैं और साथ ही इसके यह भी देखने में आया कि एक औरत की दाहिनी कलाई कटी हैं, जिस पर वह कपड़ा लपेटे हुए है। एक औरत तो चुपचाप बैठी रही मगर वह दूसरी औरत, जिसकी कलाई कटी हई थी, बाबाजी से यों बातचीत करने लगी

औरत-कहिये, आपने कुछ सोचा?

बाबाजी—जो काम मेरे किए हो ही नहीं सकता, उसके लिए मैं क्या सोचूं?

औरत–बेशक आपके किए वह काम हो सकता है क्योंकि वह आपको गुरु के समान मानती है।

साधु-गुरु के समान मानती है तो क्या मेरे कहने से वह अपनी जान दे देगी? तुम लोग भी क्या अंधेर करती हो!

औरत-इसमें जान देने की क्या जरूरत है?

साधु-तो तुम क्या चाहती हो?

औरत-बस, इतना ही कि वह उस मकान को छोड़ दे।