साधु-उस बेचारी ने किसी को कुछ दुःख तो दिया नहीं, फिर उसके पीछे क्यों पड़ी हो?
औरत-क्या उसने मुझे और मेरे आदमियों को धोखा नहीं दिया?
साधु-तुम अपना राज्य दूसरे को देकर आप भाग गई, अब तो वही मालिक है, इसलिए वे लोग उसी के नौकर गिने जायेंगे।
औरत-मैं अपना राज्य फिर अपने कब्जे करना चाहती हूँ।
साधु-जो तुमसे हो सके करो, पर मैं किसी तरह की मदद नहीं दे सकता। तुम लड़कपन से मुझे जानती हो, तुम्हारे पिता तुमको गोद में लेकर यहाँ आया करते थे, मैं कभी किसी के भले-बुरे का साथी नहीं हुआ।
औरत—जो भी हो, आपको वह काम करना ही पड़ेगा जो मैं कहती हूँ और याद रखिये कि अगर आप इन्कार करेंगे, तो इसका नतीजा अच्छा न होगा। मैं साधु और महात्मा समझ कर छोड़ न दंगी।
साधु-(कुछ देर सोचने के बाद) अच्छा, आज भर तुम मुझे और मोहलत दो, कल इसी समय यहाँ आना।
औरत-खैर, एक दिन और सही।
ये दोनों औरतें वहाँ से उठकर रवाना हुई। न मालूम कब से एक आदमी कुटी के पीछे छिपा हुआ था, जो इस समय नजर बचाकर उन दोनों के पीछे-पीछे तब तक चलता ही गया, जब तक वे दोनों आबादी में पहुँचकर अपने मकान के अन्दर न घुस गईं। जब उन दोनों औरतों ने मकान के अन्दर जाकर दरवाजा बन्द कर लिया, जिसे खुला छोड़ गई थीं, तब वह आदमी वहाँ से लौटा, और फिर उसी कुटी में पहुँचा, जिस का हाल ऊपर लिख चुके हैं। कुटी का दरवाजा खुला हुआ था, और साधु बेचारे उसी तरह बैठे कुछ सोच रहे थे। वह आदमी कुटी के अन्दर बेधड़क चला गया, और दंडवत करके एक तरफ बैठ गया।
साधु-कहिए देवीसिंहजी, आप आ गए?
देवीसिंह-(हाथ जोड़कर) जी महाराज, मैं तभी से यहाँ हूँ, जब वे दोनों यहाँ आई भी न थीं, अब उन दोनों को उनके घर पहुँचा कर लौटा आ रहा हूँ।
साधु-हाँ!
देवीसिंह-जी हाँ, आपने बड़ी कृपा की जो उनका हाल मुझे बता दिया, कई दिनों से हम हैरान हो रहे थे। क्या कहूँ, आपकी आज्ञा न हुई, नहीं तो मैं इसी जगह से इन दोनों को अपने कब्जे में कर लेता।
साधु-नहीं भैया, ऐसा करने से यह हमारे गुरु की कुटिया बदनाम होती, अब तुमने उसका घर देख ही लिया है, सब काम बना लोगे। वीरेन्द्रसिंह बड़े प्रतापी और धर्मात्मा राजा हैं, ऐसे को कभी कोई सता नहीं सकता। देखो, इस दुष्टा माधवी ने अपने चाल-चलन को कैसा खराब किया और प्रजा को कितना दुःख दिया है! आखिर उमी की सजा भोग रही है। अच्छा, अब ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। वीरेन्द्रसिंह