से मेरा आशीर्वाद कहना। अहा, वह कैसा धर्मात्मा और नीति पर चलनेवाला भक्त् राजा है।
देवीसिंह–अच्छा, तो मुझे आज्ञा है न?
साधु-हाँ, जाओ, मगर देखो, मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कहता हूँ कि माधवी को जान से मत मारना, और बेचारी कामिनी पर दया रखना। मैं उसे अपनी पुत्री ही मानता हूँ। वीरेन्द्रसिंह से कह देना कि वे कामिनी को अपनी लड़की समझें और आनन्दसिंह के साथ उसका सम्बन्ध करने में कुछ सोच-विचार न करें, क्या हुआ, अगर उसका बाप आपके सामने खड़ा होने लायक नहीं है।
देवीसिंह-(हाथ जोड़कर) बहुत अच्छा, कह दूँगा। राजा वीरेन्द्रसिंह कदापि आपकी आज्ञा न टालेंगे; मगर फिर एक दफे मैं आपकी सेवा में आऊँगा।
साधु-नहीं, अब मुझसे मुलाकात न होगी। मैं आज ही इस कुटी को छोड़ दूँगा। हाँ, ईश्वर चाहेगा तो मैं एक दिन स्वयं तुम लोगों से मिलूँगा।
देवीसिंह-जैसी आज्ञा। साधु-हाँ बस, अब जाओ, यहाँ मत अटको।
पाठक सोचते होंगे कि देवीसिंह तो वीरेन्द्रसिंह के साथ चुनार चले गये थे, यहाँ कैसे आ पहुँचे! मगर नहीं, लोगों के जानने में वीरेन्द्रसिंह देवीसिंह को अपने साथ ले गये थे, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हुआ था। राजा वीरेन्द्रसिंह की गुप्त नीति साधारण नहीं होती।
16
राजा वीरेन्द्रसिंह के चुनार चले जाने के बाद दोनों भाइयों को अपनी-अपनी फिक्र पैदा हुई। कुँअर आनन्दसिंह किन्नरी की फिक्र में पड़े और कुंअर इन्द्रजीतसिंह को राजगृह की फिक्र पैदा हुई। राजगृह को फतह कर लेना उनके लिए एक अदना काम था, मगर इस विचार से कि किशोरी वहाँ फँसी हुई है, हमें सताने के लिए अग्निदत्त उसे तकलीफ न दे, धावा करने का जल्दी साहस नहीं कर सकते थे। जिस समय वह आजाद हए, अर्थात् वीरेन्द्रसिंह के मौजूद रहने का खयाल जाता रहा, उसी समय से किशोरी की मुहब्बत ने जोर बाँधा और तरद्दुद के साथ मिली हुई बेचैनी बढ़ने लगी। आखिर अपने मित्र भैरोंसिंह से बोले, "अब मैं बिना राजगृह गए नहीं रह सकता। जिस जगह हमारे देखते-देखते बेचारी किशोरी हम लोगों से छीन ली गई, उस जगह अर्थात् उस अमलदारी को बिना तहस-नहस किये और किशोरी को पाये मेरा जी ठिकाने न होगा और न मुझे दुनिया की कोई चीज भली मालूम होगी।
भैरोंसिंह-आपका कहना ठीक है, मगर आप अकेले वहाँ क्या करेंगे?
इन्द्रजीतसिंह-दुष्ट अग्निदत्त के लिए मैं अकेला ही बहुत हूँ।