सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
133
 

रानी कलावती पागलों की तरह बहुत देर तक न जाने क्या-क्या सोचती रही, आखिर उठ खड़ी हुई और तालियों का गुच्छा उठाकर अपना एक सन्दूक खोला। न मालूम उसमें से क्या निकालकर उसने अपने मुँह में रख लिया और पास ही पड़ी हुई सोने की सुराही में से जल निकालकर पीने के बाद कलम-दवात और कागज लेकर कुछ लिखने बैठ गयी। लेख समाप्त होते-होते तक उसकी सखियाँ भी आ पहुँचीं। कलावती ने लिखे हुए कागज को लपेट कर अपनी एक सखी के हाथ में दिया और कहा, "जब महाराज मुझे पूछे तो यह कागज उनके हाथ में दे देना। बस, तुम लोग जाओ, अपना काम करो। मैं इस समय सोना चाहती हूँ। जब तक मैं खुद न उठू, खबरदार, मुझको कोई मत उठाना!"

हुक्म पाते ही उसकी लौंडियाँ वहाँ से हट गयीं और रानी कलावती ने पलंग पर लेटकर आँचल से मुह ढाँप लिया।

दो ही पहर के बाद मालूम हो गया कि रानी कलावती सो गयी, आज के लिए नहीं, बल्कि वह हमेशा के लिए सो गयी, अब वह किसी के जगाये नहीं जाग सकतीं।

शाम के वक्त जब महाराज शिवदत्त फिर महल में आये तो महारानी का लिखा कागज उनके हाथ में दिया गया। पढ़ते ही शिवदत्त दौड़ा हुआ उस कमरे में गया जिसमें कलावती सोई हुई थी। मुँह पर से कपड़ा हटाया, नब्ज देखी, और तुरन्त लौटकर बाहर चला गया।

अब तो उसकी सब सखियों और लौंडियों को भी मालूम हो गया कि रानी कलावती हमेशा के लिए सो गयी। न मालूम बेचारी ने किन-किन बातों को सोचकर जान दे देना ही मुनासिब समझा। उसकी प्यारी सखियाँ, जिन्हें वह जान से ज्यादा मानती थी, पलंग के चारों तरफ जमा हो गयीं और उसकी आखिरी सूरत देखने लगी। भीमसेन चार घण्टे पहले ही मुहिम पर रवाना हो चुका था। उसे अपनी प्यारी माँ के मरने की कुछ खबर ही नहीं और यह सोचकर कि वह उदास और सुस्त होकर अपना काम न कर सकेगा, शिवदत्त ने भी कलावती के मरने की खबर उसके कान तक पहुँचने न दी।

ऐयारों और थोड़े से लड़ाकों के सिवाय नाहरसिंह को साथ लिए हुए भीमसेन राजगृह की तरफ रवाना हुआ। उसका साथी नाहरसिंह बेशक लड़ाई के फन में बहुत ही जबर्दस्त था। उसे विश्वास था कि कोई अकेला आदमी लड़कर कभी मुझसे जीत नहीं सकता। भीमसेन भी अपने को ताकतवर और होशियार लगाता था, मगर जब से लोभवश नाहरसिंह ने उसकी नौकरी कर ली और आजमाइश के तौर पर दो-चार दफे नाहरसिंह और भीमसेन में नकली लड़ाई हुई, तब से भीमसेन को मालूम हो गया कि नाहरसिंह के सामने वह एक बच्चे के बराबर है। नाहरसिंह लड़ाई के फन में जितना होशियार और ताकतवर था उतना ही नेक और ईमानदार भी था और उसका यह प्रण करना बहुत ही मुनासिब था कि उसे जिस दिन जो कोई जीतेगा, वह उसी दिन से उसकी तावेदारी कबूल कर लेगा।

ये लोग पहले राजगृह में पहुँचे और एक गुप्त खोह में डेरा डालने के बाद