पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१८३

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नहीं मिल सकता।

किशोरी-मुझे तो एक घड़ी सौ-सौ वर्ष के समान बीतती है।

लाली-खैर, जहाँ इतने दिन बीते, वहाँ दो दिन और सही।

थोड़ी देर तक बातचीत होती रही। इसके बाद लाली उठकर अपने मकान में चली गई और मामूली कामों की फिक्र में लगी।

इसके तीसरे दिन आधी रात के समय लाली अपने मकान से बाहर निकली और किशोरी के मकान में आई। वे लौंडियां, जो किशोरी के यहाँ पहरे पर मुकर्रर थीं, गहरी नीद में पड़ी खर्राटे ले रही थीं, मगर किशोरी की आँखों में नींद का नामनिशान नहीं। वह पलंग पर लेटी दरवाजे की तरफ देख रही थी। उसी समय हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिए लाली ने कमरे के अन्दर पैर रखा जिसे देखते ही किशोरी उठ खड़ी हुई, बड़ी मुहब्बत के साथ हाथ पकड़ लाली को अपने पास बैठाया।

किशोरी-ओफ! मेरे ये दो दिन बड़ी कठिनता से बीते हैं। दिन-रात डर लगा ही रहता था।

लाली-क्यों?

किशोरी—इसलिए कि कोई उस छत पर जाकर देख न ले कि किसी ने सेंध लगाई है।

लाली-उँह, कौन उस पर जाता है और कौन देखता है! लो, अब देर करना मुनासिब नहीं।

किशोरी–मैं तैयार हूँ, कुछ लेने की जरूरत तो नहीं है? लाली-जरूरत की सब चीजें मेरे पास हैं, तुम बस चली चलो।

लाली और किशोरी वहाँ से रवाना हुई और पेड़ों की आड़ में छिपती हुई उस मकान के पिछवाड़े पहुँची जिसकी छत में लाली ने सेंध लगाई थी। कमन्द लगाकर दोनों ऊपर चढ़ी, फिर कमन्द खींच लिया और उसी कमन्द के सहारे सेंध की राह दोनों मकान के अन्दर उतर गईं। वहाँ की अजायबातों को देख किशोरी की अजब हालत हो गई, मगर तुरन्त ही उसका ध्यान दूसरी तरफ जा पड़ा। किशोरी और लाली जैसे ही उस मकान के अन्दर उतरी, वैसे ही बाहर से किसी के ललकारने की आवाज आई, साथ ही फुर्ती से कई कमन्द लगा दस-पन्द्रह आदमी छत पर चढ़ आये और 'धरो-धरो! जाने न पावे, जाने न पावे!" की आवाज आने लगी।

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कुँअर इन्द्रजीतसिंह तालाब के किनारे खड़े उस विचित्र इमारत और हसीन औरत की तरफ देख रहे हैं। उनका इरादा हुआ कि तैर कर उस मकान में चले जायें जो इस तालाब के बीचोंबीच में बना हुआ है, मगर उस नौजवान औरत ने उन्हें हाथ के